मूल प्रार्थना
अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि॒ तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम्।
इ॒दम॒हमनृ॑तात्स॒त्यमुपै॑मि॥४७॥
यजु॰ १।५
व्याख्यान—हे “अग्ने” सच्चिदानन्द, स्वप्रकाशरूप ईश्वराग्ने! ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आदि सत्यव्रतों का आचरण मैं करूँगा, सो इस व्रत को आप कृपा से सम्यक् सिद्ध करें तथा मैं अनृत अनित्य देहादि पदार्थों से पृथक् होके इस यथार्थ सत्य जिसका कभी व्यभिचार विनाश नहीं होता, उस सत्याचरण, विद्यादि लक्षण धर्म को प्राप्त होता हूँ, इस मेरी इच्छा को आप पूरी करें, जिससे मैं सभ्य, विद्वान्, सत्याचरणी, आपकी भक्तियुक्त धर्मात्मा होऊँ॥४७॥