मूल प्रार्थना
इ॒दं मे॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं चो॒भे श्रिय॑मश्नुताम्।
मयि दे॒वा दधतु॒ ते॒ स्वाहा॑॥५५॥
यजु॰ ३२।१६
व्याख्यान—हे महाविद्य! महाराज! सर्वेश्वर! मेरा “ब्रह्म” ब्रह्म (विद्वान्) और “क्षत्रम्” राजा महाचतुर, न्यायकारी शूरवीर राजादि क्षत्रिय ये दोनों आपकी अनन्त कृपा से यथावत् अनुकूल हों। “श्रियम्”सर्वोत्तम विद्यादिलक्षणयुक्त महाराज्यश्री को हम प्राप्त हों । हे “देवाः” विद्वानो! दिव्य ईश्वर-गुण, परम कृपा आदि उत्तम विद्यादिलक्षणसमन्वित श्री को मुझमें अचलता से धारण कराओ, उसको मैं अत्यन्त प्रीति से स्वीकार करूँ और उस श्री को विद्यादि सद्गुण वा स्वसंसार के हित के लिए तथा राज्यादि प्रबन्ध के लिए व्यय करूँ॥५५॥
॥इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां महाविदुषां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचित आर्याभिविनये द्वितीयः प्रकाशः सम्पूर्णः॥