मूल स्तुति
ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिꣳ हवामहे प्रि॒याणां॑ त्वा प्रि॒यप॑तिꣳ हवामहे
निधी॒नां त्वा॑ निधि॒पति॑ꣳ हवामहे वसो मम। आहम॑जानि गर्भ॒धमा॑ त्वमजासि गर्भ॒धम्॥४६॥
यजु॰ २३।११
व्याख्यान—हे समूहाधिपते! आप मेरे गण=सब समूहों के पति होने से आपको ‘गणपति’ नाम से ग्रहण करता हूँ तथा मेरे प्रिय कर्मकारी, पदार्थ और जनों के “पति” पालक भी आप हैं, इससे आपको ‘प्रियपति’ मैं अवश्य जानूँ। एवं मेरी सब निधियों के पति होने से आपको मैं निश्चित निधिपति जानूँ। हे “वसो” सब जगत् जिस सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है, उस “गर्भ” स्वसामर्थ्य का धारण और पोषण करनेवाला आपको ही मैं जानूँ। सो गर्भ सबका कारण आपका सामर्थ्य है, यही सब जगत् का धारण और पोषण करता है। यह जीवादि जगत् तो जन्मता और मरता है, परन्तु आप सदैव अजन्मा और अमृतस्वरूप हैं। आपकी कृपा से अधर्म, अविद्या, दुष्टभावादि को “अजानि” दूर फेंकूँ। तथा हम सब लोग आप ही की “हवामहे” अत्यन्त स्पर्धा (प्राप्ति की इच्छा) करते हैं। सो आप अब शीघ्र हमको प्राप्त होओ। जो प्राप्त होने में आप थोड़ा भी विलम्ब करेंगे तो हमारा कुछ भी कभी ठिकाना न लगेगा॥४६॥