मूल प्रार्थना
मे॒धां मे॒ वरु॑णो ददातु मे॒धाम॒ग्निः प्र॒जाप॑तिः।
मे॒धामिन्द्र॑श्च वा॒युश्च॑ मे॒धां धा॒ता द॑दातु मे॒ स्वाहा॑॥५४॥
यजु॰ ३२।१५
व्याख्यान—हे सर्वोत्कृष्टेश्वर! आप “वरुणः” वर (वरणीय) आनन्दस्वरूप हो, स्वकृपा से मुझको “मेधाम्” सर्व-विद्यासम्पन्न बुद्धि दीजिए तथा “अग्निः” विज्ञानमय, विज्ञानप्रद “प्रजापतिः” सब संसार के अधिष्ठाता, पालक “इन्द्रः” परमैर्श्यवान् “वायुः” विज्ञानवान्, अनन्तबल “धाता” तथा सब जगत् का धारण और पोषण करनेवाले आप मुझको अत्युत्तम मेधा (बुद्धि) दीजिए* “स्वाहा” इस प्रार्थनाको आप प्रीति से स्वीकार कीजिए॥५४॥
[* अनेक वार माँगना ईश्वर से अत्यन्त प्रीतिद्योतनार्थ और सद्यः दानार्थ है, बुद्धि से उत्तम पदार्थ कोई नहीं है, उसके होने से जीव को सब सुख होते हैं। इस हेतु से वारम्वार परमात्मा से बुद्धि की ही याचना करना श्रेष्ठ बात है। (दयानन्द सरस्वती)]