मूल स्तुति
य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ऽउ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः।
यस्य॑ छा॒यामृतं॒ यस्य॑ मृ॒त्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥४८॥
यजु॰ २५।१३
व्याख्यान—हे मनुष्यो! जो परमात्मा अपने लोगों को “आत्मदाः” आत्मा का देनेवाला तथा आत्मज्ञानादि का दाता है, जीवप्राणदाता तथा “बलदाः” त्रिविध बल—एक मानस विज्ञानबल, द्वितीय इन्द्रियबल, अर्थात् श्रोत्रादि की स्वस्थता, तेजोवृद्धि, तृतीय शरीरबल नाम नैरोग्य, महापुष्टि, दृढ़ाङ्गता और वीर्यादि वृद्धि इन तीनों बलों का जो दाता है, जिसके “प्रशिषम्” अनुशासन (शिक्षा-मर्यादा) को यथावत् विद्वान् लोग मानते हैं, सब प्राणी-अप्राणी—जड़-चेतन, विद्वान् वा मूर्ख उस परमात्मा के नियमों का कोई कभी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, जैसेकि कान से सुनना, आँख से देखना, इसका उलटा कोई नहीं कर सकता है। जिसकी “छाया” आश्रय ही अमृत विज्ञानी लोगों का मोक्ष कहाता है। तथा जिसकी अछाया (अकृपा) दु़ष्टजनों के लिए वारम्वार मरण और जन्मरूप महाक्लेशदायक है। हे सज्जन मित्रो! वही एक परमसुखदायक पिता है। आओ अपने सब जने मिलके प्रेम, विश्वास और भक्ति करें, कभी उसको छोड़के अन्य को उपास्य न मानें। वह अपने को अत्यन्त सुख देगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं॥४८॥