मूल स्तुति
न तं वि॑दाथ॒ य इ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव।
नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ उक्थ॒शास॑श्चरन्ति॥४४॥
यजु॰ १७।३१
व्याख्यान—हे जीवो! जो परमात्मा इन सब भुवनों का बनानेवाला विश्वकर्मा है, उसको तुम लोग नहीं जानते हो, इसी हेतु से तुम “नीहारेण” अत्यन्त अविद्या से आवृत, मिथ्यावाद, नास्तिकत्व, बकवाद करते हो। इससे दुःख ही तुमको मिलेगा, सुख नहीं। तुम लोग “असुतृपः” केवल स्वार्थसाधक, प्राणपोषणमात्र में ही प्रवृत्त हो रहे हो “उक्थशासश्चरन्ति” केवल विषय-भोगों के लिए ही अवैदिक कर्म करने में प्रवृत्त हो रहे हो और जिसने ये सब भुवन रचे हैं, उस सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी परब्रह्म से उलटे चलते हो, अतएव उसको तुम नहीं जानते। प्रश्न—वह ब्रह्म और हम जीवात्मा लोग—ये दोनों एक हैं वा नहीं? उत्तर—“अन्यत् युष्माकमन्तरं बभूव” ब्रह्म और जीव की एकता वेद और युक्ति से सिद्ध कभी नहीं हो सकती, क्योंकि जीव ब्रह्म का पूर्व से ही भेद है। जीव अविद्या आदि दोषयुक्त है, ब्रह्म अविद्यादि दोषयुक्त कभी नहीं होता, इससे यह निश्चित है कि जीव और ब्रह्म एक न थे, न होंगे और न ही हैं, किंच व्याप्य-व्यापक, आधाराधेय, (सेव्यसेवकादि) जन्यजनकादि सम्बन्ध तो जीवादि के साथ ब्रह्म का है, इससे जीव ब्रह्म की एकता मानना किसी मनुष्य को योग्य नहीं॥४४॥