मूल प्रार्थना
यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑।
दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥४३॥
यजु॰ ३४।१
व्याख्यान—हे धर्म्यनिरुपद्रव परमात्मन्! मेरा मन सदा “शिवसंकल्पम्” धर्म-कल्याणसङ्कल्पकारी ही आपकी कृपा से हो, कभी अधर्मकारी न हो। वह मन कैसा है कि जागते हुए पुरुष का दूर-दूर आताजाता है, दूर जाने का जिसका स्वभाव ही है। अग्नि, सूर्यादि, श्रोत्रादि इन्द्रिय इन ज्योतिप्रकाशकों का भी ज्योतिप्रकाशक है, अर्थात् मन के विना किसी पदार्थ का प्रकाश कभी नहीं होता। वह एक बड़ा चञ्चल, वेगवाला मन आपकी कृपा से ही स्थिर, शुद्ध, धर्मात्मा, विद्यायुृक्त हो सकता है “दैवम्” देव (आत्मा) का मुख्यसाधक भूत, भविष्यत् और वर्त्तमानकाल का ज्ञाता है, वह आपके वश में ही है, उसको आप हमारे वश में यथावत् करें, जिससे हम कुकर्म में कभी न फसें, सदैव विद्या, धर्म और आपकी सेवा में ही रहें॥४३॥