मूल स्तुति
कि स्वि॑दासीदधि॒ष्ठान॑मा॒रम्भ॑णं कत॒मत्स्वि॑त्क॒थासी॑त्।
यतो॒ भूमिं॑ ज॒नय॑न्वि॒श्वक॑र्मा॒ वि द्या॒मौ॑र्णो॑न्महि॒ना वि॒श्वच॑क्षाः॥३२॥
यजु॰ १७।१८
व्याख्यान—(प्रश्नोत्तरविद्या से—) इस संसार का अधिष्ठान क्या है? कारण तथा उत्पादक कौन है? किस प्रकार से है तथा रचना करनेवाले ईश्वर का अधिष्ठानादि क्या है तथा निमित्तकारण और साधन जगत् वा ईश्वर के क्या हैं? (उत्तर) “यतः” जिसका विश्व (जगत् कर्म) किया हुआ है, उस विश्वकर्मा परमात्मा ने अनन्त स्वसामर्थ्य से इस जगत् को रचा है। वही इस सब जगत् का अधिष्ठान, निमित्त और साधनादि है। उसने अपने अनन्त स्वसामर्थ्य से इस सब जीवादि जगत् को यथायोग्य रचा और भूमि से लेके “द्याम्” स्वर्गपर्यन्त रचके स्वमहिमा से “और्णोत्” आच्छादित कर रक्खा है और परमात्मा का अधिष्ठानादि परमात्मा ही है, अन्य कोई नहीं। सबका उत्पादन, रक्षण, धारणादि भी वही करता है तथा आनन्दमय है। वह ईश्वर कैसा है? कि “विश्वचक्षाः” सब संसार का द्रष्टा है, उसको छोड़के अन्य का आश्रय जो करता है, वह दुःखसागर में क्यों न डूबेगा?॥३२॥