मूल प्रार्थना
इ॒षे पि॑न्वस्वो॒र्जे पि॑न्वस्व॒ ब्रह्म॑णे पिन्वस्व क्ष॒त्राय॑ पिन्वस्व॒
द्यावा॑पृथि॒वीभ्यां॑ पिन्वस्व॒। धर्मा॑सि सुधर्मामे॑न्य॒स्मे नृ॒म्णानि॑
धारय॒ ब्रह्म॑ धारय क्ष॒त्रं धा॑रय॒ विशं॑ धारय॥३१॥
यजु॰ ३८।१४
व्याख्यान—हे सर्वसौख्यप्रदेश्वर! हमको “इषे” उत्तमान्न के लिए पुष्ट कर, अन्न के अपचन के रोगों से बचा तथा विना अन्न के दुःखी हम लोग कभी न हों। हे महाबल! “ऊर्जे” अत्यन्त पराक्रम के लिए हमको पुष्ट कर। हे वेदोत्पादक! “ब्रह्मणे” सत्य वेदविद्या के लिए बुद्ध्यादि बल से सदैव हमको पुष्ट और बलयुक्त कर। हे महाराजाधिराज परब्रह्मन्! “क्षत्राय” अखण्ड चक्रवर्ती राज्य के लिए, शौर्य, धैर्य, नीति, विनय, पराक्रम और बलादि उत्तम गुणयुक्त कृपा से हम लोगों को यथावत् पुष्ट कर। अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग पराधीन कभी न हों। हे स्वर्गपृथिवीश! “द्यावापृथिवीभ्याम्” स्वर्ग (परमोत्कृष्ट मोक्षसुख) पृथिवी (संसारसुख) इन दोनों के लिए हमको समर्थ कर। हे सुष्ठु धर्मशील! तू धर्मकारी हो तथा धर्मस्वरूप ही हो। हम लोगों को भी कृपा से धर्मात्मा कर। “अमेनि” तुम निर्वैर हो, हमको भी निर्वैर कर तथा स्वकृपादृष्टि से “अस्मे” (अस्मभ्यम्) हमारे लिए “नृम्णानि” विद्या, पुरुषार्थ, हस्ती, अश्व, सुवर्ण, हीरादि रत्न, उत्कृष्ट राज्य, उत्तम पुरुष और प्रीत्यादि पदार्थों को धारण कर, जिससे हम लोग किसी पदार्थ के विना दुःखी न हों। हे सर्वाधिपते! ब्राह्मण=पूर्णविद्यादि सद्गुणयुक्त क्षत्र=बुद्धि, विद्या तथा शौर्यादि गुणयुक्त विश=वैश्य अनेक विद्योद्यम, बुद्धि, विद्या, धन और धान्यादि वस्तुयुक्त तथा शूद्रादि भी सेवादि गुणयुक्त ये सब स्वदेशभक्त उत्तम हमारे राज्य में हों। इन सबका धारण आप ही करो, जिससे अखण्ड ऐश्वर्य हमारा आपकी कृपा से सदा बना रहे॥३१॥