मूल स्तुति
य ऽ इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ जुह्व॒द् ऋषि॒र्होता॒ न्यसी॑दत् पि॒ता नः॑।
स ऽ आ॒शिषा॒ द्र॒वि॑णमि॒च्छमा॑नः प्रथम॒च्छदव॑राँ॒२॥ऽआ वि॑वेश॥३०॥
व्याख्यान—“होता” उत्पत्ति समय में देने और प्रलय समय में सबको लेनेवाला परमात्मा ही है। “ऋषिः” सर्वज्ञ इन सब लोक-लोकान्तर भुवनों का अपने स्वसामर्थ्य कारण में होम (प्रलय करके) “न्यसीदत्” नित्य अवस्थित रहता है, सो ही हमारा पिता है, फिर जब “द्रविणम्” द्रव्यरूप जगत् को स्वेच्छा से उत्पन्न किया चाहता है, उस “आशिषा” सामर्थ्य से यथायोग्य विविध जगत् को सहज स्वभाव से रच देता है। इस चराचर “प्रथमच्छत्” विस्तीर्ण जगत् को रचके अनन्तस्वरूप से आच्छादित किया है और अन्तर्यामी साक्षीस्वरूप उसमें प्रविष्ट हो रहा है, अर्थात् बाहर और भीतर परिपूर्ण हो रहा है। वही हमारा निश्चित पिता है। उसकी सेवा छोड़के जो मनुष्य अन्य पाषणादि मूर्ति्त की सेवा करता है, वह कृतघ्नत्वादि महादोषयुक्त होके सदैव दुःखभागी होता है। और जो मनुष्य परमदयामय पिता की आज्ञा में रहता है, वह सर्वानन्द का सदैव भोग करता है॥३०॥