मूल स्तुति
वि॒भूर॑सि प्र॒वाह॑णो॒ वह्नि॑रसि हव्य॒वाह॑नः।
श्वा॒त्रोऽसि॒ प्रचे॑तास्तु॒थोऽसि॒ वि॒श्ववे॑दाः॥१६॥
उ॒शिग॑सि क॒विरङ्घा॑रिरसि॒ बम्भा॑रिः।
अव॒स्यूर॑सि॒ दुव॑स्वान्।
शुन्ध्यूर॑सि मार्जा॒लीयः॑।
स॒म्राड॑सि कृ॒शानुः॑।
परि॒षद्यो॑ऽसि॒ पव॑मानः। नभो॑ऽसि प्र॒तक्वा॑।
मृ॒ष्टोऽसि हव्य॒सूद॑नः।
ऋ॒तधा॑मासि॒ स्वर्ज्योतिः॥१७॥
स॒मु॒द्रोऽसि वि॒श्वव्य॑चाः।
अ॒जो᳕ऽस्येक॑पा॒त्।
अहि॑रसि बु॒ध्न्यः। वाग॑-
स्यै॒न्द्रम॑सि॒ सदो॑ऽसि।
ऋत॑स्य द्वारौ॑ मा मा॒ सन्ता॑प्तम्।
अध्व॑नामध्वपते॒ प्र मा॑ तिर स्व॒स्ति मे॒ऽस्मिन् प॒थि दे॑व॒याने॑ भूयात्॥१८॥
यजु॰ ५।३१। ३२। ३३॥
व्याख्यान—हे व्यापकेश्वर! आप विभु हो, सर्वत्र प्रकाशित वैभव ऐश्वर्ययुक्त आप ही हो और कोई नहीं। विभु होके सब जगत् के प्रवाहण (स्वस्व-नियमपूर्वक चलानेवाले) तथा सबके निवार्हकारक भी आप हो। हे स्वप्रकाशक सर्वरसवाहकेश्वर! आप वह्नि हैं। सब हव्य=उत्कृष्ट रसों के भेदक, आकर्षक तथा यथावत् स्थापक आप ही हो। हे आत्मन्! आप “श्वात्रः” शीघ्र व्यापनशील हो तथा प्रकृष्ट ज्ञानस्वरूप, प्रकृष्ट ज्ञान के देनेवाले हो। हे सर्ववित् आप “तुथ” और “विश्ववेदा” हो, “तुथो वै ब्रह्म” *१ (यह शतपथ की श्रुति है) सब जगत् में विद्यमान, प्राप्त और लाभ करानेवाले हो॥१६॥
[*१. शतपथ ४.३.४.१५॥]
हे सर्वप्रिय! आप “उशिक्” कमनीयस्वरूप, अर्थात् सब लोग जिसको चाहते हैं, क्योंकि आप “कविः” पूर्ण विद्वान् हो तथा आप “अङ्घारिः” हो अर्थात् स्वभक्तों का जो अघ (पाप) उसके अरि (शत्रु) हो, अर्थात् सर्वपापनाशक हो तथा “बम्भारिः” स्वभक्तों और सर्वजगत् के पालन तथा धारण करनेवाले हो, “अवस्यूरसि दुवस्वान्” अन्नादि पदार्थ स्वभक्त धर्मात्माओं को देने की इच्छा सदा करते हो तथा परिचरणीय विद्वानों से सेवनीयतम हो। “शुन्ध्यूरसि, मार्जालीयः” शुद्धस्वरूप और सब जगत् के शोधक तथा पापों को मार्जन (निवारण) करनेवाले आप ही हो, अन्य कोई नहीं। “सम्राडसि कृशानुः” सब राजाओं के महाराज तथा कृश=दीनजनों के प्राण के सुखदाता आप ही हो, “परिषद्योसि पवमानः” हे न्यायकारिन्! पवित्र सभास्वरूप, सभा के आज्ञापक, सभ्य, सभापति, सभाप्रिय, सभारक्षक सभा से ही सुखदायक आप ही हो तथा पवित्रस्वरूप, पवित्रकारक, पवित्रप्रिय आप ही हो। “नभोऽसि प्रतक्वा” हे निर्विकार! आकाशवत् आप क्षोभरहित, अतिसूक्ष्म होने से आपका नाम नभ है तथा “प्रतक्वा” सबके ज्ञाता, सत्यासत्यकारी जनों के कर्मों की साक्ष्य रखनेवाले कि जिसने जैसा पाप वा पुण्य किया हो, उसको वैसा फल मिले, अन्य का पुण्य वा पाप अन्य को कभी न मिले। “मृष्टोसि हव्यसूदनः” मृष्ट= शुद्धस्वरूप, सब पापों के मार्जक, शोधक तथा “हव्यसूदनः” मिष्ट, सुगन्ध, रोगनाशक, पुष्टिकारक इन द्रव्यों से वायु- वृष्टि की शुद्धि करने-करानेवाले हो, अतएव सब द्रव्यों के विभागकर्त्ता आप ही हो, इससे आपका नाम “हव्यसूदन” है। “ऋतधामासि स्वर्ज्योतिः” हे भगवन्! आपका ही धाम, स्थान सर्वगत सत्य और यथार्थ स्वरूप है, यथार्थ (सत्य) व्यवहार में ही आप निवास करते हो, मिथ्या में नहीं। “स्वः” आप सुखस्वरूप और सुखकारक हो तथा ‘ज्योतिः’ स्वप्रकाश और सबके प्रकाशक आप ही हो॥१७॥
“समुद्रोऽसि विश्वव्यचाः” हे द्रवणीय-स्वरूप! सब भूतमात्र आप ही में द्रवै हैं, क्योंकि कार्य कारण में ही मिले हैं, आप सबके कारण हो तथा (व्याज)=सहज से सब जगत् को विस्तृत किया है, इससे आप “विश्वव्यचाः” हैं “अजोऽस्येकपात्” आपका जन्म कभी नहीं होता और यह सब जगत् आपके किञ्चिन्मात्र एक देश में है। आप अनन्त हो। “अहिरसि बुध्न्यः” आपकी हीनता कभी नहीं होती तथा सब जगत् के मूलकारण और अन्तरिक्ष में भी सदा आप ही पूर्ण रहते हो “वागस्यैन्द्रमसि सदोसि” सब शास्त्र के उपदेशक, अनन्तविद्यास्वरूप होने से आप “वाक्” हो, परमैश्वर्यस्वरूप सब विद्वानों में अत्यन्त शोभायमान होने से आप “ऐन्द्र” हो। सब संसार आपमें ठहर रहा है, इससे आप “सदः” (सभास्वरूप) हो “ऋतस्य द्वारौ मा मा सन्ताप्तम्” सत्यविद्या और धर्म ये दोनों मोक्षस्वरूप आपकी प्राप्ति के द्वार हैं, उनको सन्तापयुक्त हम लोगों के लिए कभी मत रक्खो, किन्तु सुखस्वरूप ही खुले रक्खो, जिससे हम लोग सहज से आपको प्राप्त हों “अध्वनामित्यादि” हे अध्वपते! परमार्थ और व्यवहार मार्गों में मुझको कहीं क्लेश मत होने दे, किन्तु उन मार्गों में मुझको स्वस्ति (आनन्द) ही आपकी कृपा से रहे, किसी प्रकार का दुःख हमको न रहे॥१८॥