मूल स्तुति
दे॒वकृ॑त॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमसि मनु॒ष्यकृत॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमसि पितृकृ॑त॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमस्यात्मकृ॑त॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमस्येन॑स एनसोऽव॒यज॑नमसि।
यच्चा॒हमेनो॑ वि॒द्वांश्च॒कार॒ यच्चावि॑द्वां॒स्तस्य॒ सर्व॒स्यैन॑सोऽव॒यज॑नमसि॥१९॥यजु॰ ८।१३
व्याख्यान—हे सर्वपापप्रणाशक! “देवकृत॰” इन्द्रिय, विद्वान् और दिव्यगुणयुक्त जन के किये पापों के नाशक आप एक ही हो, अन्य कोई नहीं। एवं, मनुष्य (मध्यस्थजन), पितृ (परम-विद्यायुक्त जन) और “आत्मकृत॰” जीव के पापों तथा “एनसः एनसः” पापों से भी बड़े पापों से आप ही ‘अवयजन’ हो, अर्थात् सर्वपापरहित हो और हम सब मनुष्यों के भी पाप दूर रखनेवाले एक आप ही दयामय पिता हो। हे महानन्तविद्य! जो-जो मैंने विद्वान् वा अविद्वान् होके पाप किया हो, “सर्वस्यैनसः अवयजनमसि” उन सब पापों का छुड़ानेवाला आपके विना कोई भी इस संसार में हमारा शरण नहीं है, इससे हमारे अविद्यादि सब पाप छुड़ाके शीघ्र हमको शुद्ध करो॥१९॥