मूल स्तुति
यस्मा॒न्न जा॒तः परो॑ऽअ॒न्योऽअस्ति॒ य आ॑वि॒वेश॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ स
षो॑ड॒शी॥१४॥यजु॰ ८।३६
व्याख्यान—जिससे बड़ा, तुल्य वा श्रेष्ठ न हुआ, न है और न कोई कभी होगा, उसको परमात्मा कहना। जो “विश्वा भुवनानि” सब भुवन (लोक) सब पदार्थों के निवासस्थान असंख्यात लोकों को “आविवेश” प्रविष्ट होके पूर्ण हो रहा है, वही ईश्वर प्रजा का पति (स्वामी) है। सब प्रजा को रमा रहा और सब प्रजा में रम रहा है “त्रीणीत्यादि” तीन ज्योति अग्नि, वायु और सूर्य इनको जिसने रचा है, सब जगत् के व्यवहार और पदार्थविद्या की उत्पत्ति के लिए इन तीनों को मुख्य समझना। “सः षोडशी” सोलहकला जिसने उत्पन्न की हैं, इससे सोलह कलावान् ईश्वर कहाता है। वे सोलह कला ये हैं—ईक्षण (विचार) १, प्राण २, श्रद्धा ३, आकाश ४, वायु ५, अग्नि ६, जल ७, पृथिवी ८, इन्द्रिय ९, मन १०, अन्न ११, वीर्य (पराक्रम) १२, तप (धर्मानुष्ठान) १३, मन्त्र (वेदविद्या) १४, कर्म (चेष्टा) १५, लोक और लोकों में नाम १६—इतनी कलाओं के बीच में सब जगत् है और परमेश्वर में अनन्तकला हैं। उसकी उपासना छोड़के जो दूसरे की उपासना करता है वह सुख को प्राप्त कभी नहीं होता, किन्तु सदा दुःख में ही पड़ा रहता है॥१४॥