मूल स्तुति
आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒
श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतामा॒त्मा
य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ ब्रह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वर्य॒ज्ञेन॑
कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। स्तोम॑श्च॒ यजु॑श्च॒
ऋक्च॒ साम॑ च॒ बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रं च॑। स्व॑र्देवा अगन्मा॒मृता॑ अभूम
प्र॒जाप॑तेः प्र॒जा अ॑भूम॒ वेट् स्वाहा॑॥१३॥यजु॰ १८।२१
व्याख्यान—(यज्ञो वै विष्णुः, *१ यज्ञो वै ब्रह्म,*२ इत्याद्यैतरेय-शतपथ-ब्राह्मणश्रुतेः) यज्ञ—यजनीय जो सब मनुष्यों का पूज्य, इष्टदेव परमेश्वर, उसके हेतु (उसके अर्थ तथा उसके सङ्ग) अतिश्रद्धा से (यज्ञ जो परमात्मा उसके लिए) सब मनुष्य सर्वस्व समर्पण यथावत् करें, यही इस मन्त्र में उपदेश और प्रार्थना है कि हे सर्वस्वामिन् ईश्वर! जो यह आपकी आज्ञा है कि सब लोग सब पदार्थ मेरे अर्पण करें, इस कारण हम लोग आयु (उमर), प्राण, चक्षु (आँख), कान, वाणी, मन, आत्मा-जीव, ब्रह्मा तथा वेदविद्या, और विद्वान् ज्योति (सूर्यादि लोक तथा अग्न्यादि पदार्थ) तथा स्वर्ग (सुखसाधन), पृष्ठ (पृथिव्यादि सब लोक आधार) तथा पुरुषार्थ, यज्ञ (जो-जो अच्छा काम हम लोग करते हैं), स्तोम=स्तुति, यजुर्वेद, ऋग्वेद, सामवेद, चकार से अथर्ववेद, बृहद्रथन्तर, महारथन्तर साम इत्यादि सब पदार्थ आपके समर्पण करते हैं। हम लोग तो केवल आपके ही शरण हैं। जैसे आपकी इच्छा हो वैसा हमारे लिए आप कीजिए, परन्तु हम लोग आपके सन्तान आपकी कृपा से “स्वरगन्म” उत्तम सुख को प्राप्त हों। जब तक जीवें तब तक सदा चक्रवर्ती राज्यादि भोग से सुखी रहें और मरणानन्तर भी हम सुखी ही रहें। हे महादेवामृत! हम लोग देव (परमविद्वान्) हों तथा अमृत मोक्ष जो आपकी प्राप्ति उसको प्राप्त होके जन्म-मरणरहित अमृतस्वरूप सदैव रहें। “वेट् स्वाहा” आपकी आज्ञा पालन और आपकी प्राप्ति हो जिससे, उस क्रिया में सदा तत्पर रहें। तथा जो अन्तर्यामी आप हृदय में आज्ञा करो, अर्थात् जैसा हमारे हृदय में ज्ञान हो, वैसा ही सदा भाषण करें, इससे विपरीत कभी नहीं। हे कृपानिधे! हम लोगों का योगक्षेम (सब निर्वाह) आप ही सदा करो। आपके सहाय से सर्वत्र हमको विजय और सुख मिले॥१३॥
[*१. शतपथ १.१.२.१३॥*२. ऐतरेयब्राह्मण ८.२२॥]