मूल प्रार्थना
ऋचं॒ वाचं॒ प्र प॑द्ये॒ मनो॒ यजुः॒ प्र प॑द्ये॒ साम॑ प्रा॒णं प्र प॑द्ये॒
चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ प्र प॑द्ये॒। वागोजः॑ स॒हौजो॒ मयि॑ प्राणापा॒नौ॥५॥ यजुः॰ ३२।१, यजु॰ ३६।१
व्याख्यान—हे करुणाकर परमात्मन्! आपकी कृपा से मैं ऋग्वेदादिज्ञानयुक्त (श्रवणयुक्त) होके उसका वक्ता होऊँ तथा यजुर्वेदाभिप्रायार्थसहित सत्यार्थमननयुक्त मन को प्राप्त होऊँ। ऐसे ही सामवेदार्थनिश्चय निदिध्यासनसहित प्राण को सदैव प्राप्त होऊँ। “वागोजः” वाग्बल, वक्तृत्वबल, मनो- विज्ञानबल मुझको आप देवें। अन्तर्यामी की कृपा से मैं यथावत् प्राप्त होऊँ। “सहौजः” शरीरबल, नैरोग्य, दृढ़त्वादि गुणयुक्त को मैं आपके अनुग्रह से सदैव प्राप्त होऊँ। “मयि, प्राणापानौ” हे सर्वजगज्जीवनाधार! प्राण (जिससे कि ऊर्ध्व चेष्टा होती है) और अपान (अर्थात् जिससे नीचे की चेष्टा होती है) ये दोनों मेरे शरीर में सब इन्द्रिय, सब धातुओं की शुद्धि करनेवाले तथा नैरोग्य, बल, पुष्टि, सरलगति करनेवाले, स्थिर आयुवर्धक मर्मरक्षक हों, उनके अनुकूल प्राणादि को प्राप्त होके आपकी कृपा से हे ईश्वर! सदैव सुखी होके आपकी आज्ञा और उपासना में तत्पर रहूँ॥५॥