मूल स्तुति
स नो॒ बन्धु॑र्जनि॒ता स वि॑धा॒ता धामा॑नि वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
यत्र॑ दे॒वाऽअ॒मृत॑मानशा॒नास्तृ॒तीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैर॑यन्त॥६॥यजु॰ ३२। १०
व्याख्यान—वह परमेश्वर हमारा “बन्धुः” दुःखनाशक और सहायक है तथा “जनिता” सब जगत् तथा हम लोगों का भी पालन करनेवाला पिता तथा हम लोगों के कामों की सिद्धि (पूर्ण कामों की सिद्धि करने वाला) वही है, “विधाता” सब जगत् का भी विधाता रचने और धारण करनेवाला एक परमात्मा ही है, अन्य कोई नहीं। “धामानि वेद भुवनानि विश्वा” सब ‘धाम’, अर्थात् अनेक लोक-लोकान्तरों को रचके अनन्त सर्वज्ञता से यथार्थ जानता है। वह कौन परमेश्वर है कि जिससे ‘देव’, अर्थात् विद्वान् लोग (विद्वासो हि देवाः। —शतपथब्रा॰) अमृत, मरणादि दुःखरहित मोक्षपद में सब दुःखों से छूटके सर्वव्यापी, पूर्णानन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होके परमानन्द में सदैव रहते हैं। “तृतीये” एक स्थूल जगत् (पृथिव्यादि), दूसरा सूक्ष्म (आदिकारण), तीसरा जो सर्वदोषरहित अनन्तानन्दस्वरूप परब्रह्म उस धाम में “अध्यैरयन्त” धर्मात्मा, विद्वान् लोग स्वच्छन्द (स्वेच्छा) से वर्त्तते हैं। सब बाधाओं से छूटके विज्ञानवान् शुद्ध होके देश, काल, वस्तु के परिच्छेदरहित सर्वगत “धामन्” आधारस्वरूप परमात्मा में सदा रहते हैं, उससे जन्म-मरणादि दुःखसागर में कभी नहीं गिरते॥६॥