मूल स्तुति
स पूर्व॑या नि॒विदा॑ क॒व्यता॒योरि॒माः प्रजा अ॑जनय॒न्मनू॑नाम्।
वि॒वस्व॑ता॒ चक्ष॑सा॒ द्याम॒पश्च॑ दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम्॥४२॥ऋ॰ १।७।३।२
व्याख्यान— हे मनुष्यो! सो ही “पूर्वया, निविदा” आदि, सनातन, सत्यता आदि गुणयुक्त अग्नि ही परमात्मा था, अन्य कोई नहीं था। तब सृष्टि के आदि में स्वप्रकाशस्वरूप एक ईश्वर प्रजा की उत्पत्ति की ईक्षणता (विचार) करता भया। “कव्यतायोः” सर्वज्ञतादिसामर्थ्य से ही सत्यविद्यायुक्त वेदों की तथा “मनूनाम्” मननशीलवाले मनुष्यों की तथा अन्य पशुवृक्षादि की “प्रजाः” प्रजा को “अजनयत्” उत्पन्न किया—परस्पर मनुष्य और पशु आदि के व्यवहार चलने के लिए, परन्तु मननशीलवाले मनुष्यों को अवश्य स्तुति करने योग्य वही है। “विवस्वता चक्षसा” सूर्यादि तेजस्वी सब पदार्थों का प्रकाशनेवाला, बल से स्वर्ग (सुखविशेष), सब लोक “अपः” अन्तरिक्ष में पृथिव्यादि मध्यमलोक और निकृष्ट दुःखविशेष नरक और सब दृश्यमान तारे आदि लोक उसी ने रचे हैं। जो ऐसा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर देव है उसी “द्रविणोदाम्” विज्ञानादि धन देनेवाले को ही “देवाः” विद्वान् लोग “अग्निम्” अग्नि “धारयन्” जानते हैं। हम लोग उसी को ही भजें॥४२॥