मूल प्रार्थना
व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे।
अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरि॑वः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न्वृष्ण्या॑ रुज॥४३॥ऋ॰ १।७।१४।४
व्याख्यान—हे इन्द्र—परमात्मन्! “त्वया युजा, वयं, जयेम” आपके साथ वर्त्तमान, आपके सहाय से हम लोग दुष्ट शत्रुओं को जीतें। कैसा वह शत्रु, कि “आवृतम्” हमारे बल से घिरा हुआ। हे महाराजाधिराजेश्वर! “भरे भरे अस्माकमंशमुदव” युद्ध-युद्ध (प्रत्येक युद्ध) में हमारे अंश (बल), सेना का “उदव”, उत्कृष्ट रीति से कृपा करके रक्षण करो, जिससे किसी युद्ध में क्षीण होके हम पराजय को प्राप्त न हों, किन्तु जिनको आपका सहाय है, उनका सर्वत्र विजय ही होता है। हे “इन्द्र, मघवन्” महाधनेश्वर! “शत्रूणां, वृष्ण्या” हमारे शत्रुओं के (वीर्य) पराक्रमादि को “प्ररुज” प्रभग्न रुग्ण करके नष्ट कर दे। “अस्मभ्यं, वरिवः सुगं, कृधि” हमारे लिए चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य धन को “सुगम्” सुख से प्राप्त कर, अर्थात् आपकी करुणा कटाक्ष से हमारा राज्य और धन सदा वृद्धि को ही प्राप्त हो॥४३॥