मूल प्रार्थना
तमू॒तयो॑ रणय॒ञ्छूर॑सातौ॒ तं क्षेम॑स्य क्षि॒तयः॑ कृण्वत॒ त्राम्।
स विश्व॑स्य व॒रुण॑स्येश॒ एको॑ म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती॥४१॥ऋ॰ १।७।९।२
व्याख्यान—हे मनुष्यो! “तमूतयः” उसी इन्द्र—परमात्मा की प्रार्थना तथा शरणागति से अपने को “ऊतयः” अनन्त रक्षण तथा बलादि गुण प्राप्त होंगे। वही “शूरसातौ” युद्ध में अपने को यथावत् “रणयन्” रमण और रणभूमि में शूरवीरों के गुण परस्पर प्रीत्यादि प्राप्त करावेगा “तं क्षेमस्य क्षितयः” हे शूरवीर मनुष्यो! उसी को क्षेम=कुशलता का “त्राम्” रक्षक “कृण्वत” करो, जिससे अपना पराजय कभी न हो, क्योंकि, “सः, विश्वस्य” सो करुणामय, सब जगत् पर करुणा करनेवाला “एकः” एक ही “ईशः” ईश है, अन्य कोई नहीं। सो परमात्मा “मरुत्वान्” प्राणवायु, बल, सेनायुक्त “नः ऊती (ऊतये) सम्यक् हम लोगों पर कृपा से रक्षक हो, ईश्वर से रक्षित हम लोग कभी पराजय को न प्राप्त हों॥४१॥