मूल स्तुति
तमी॑ळत प्रथ॒मं य॑ज्ञ॒साधं॒ विश॒ आरी॒राहु॑तमृञ्जसा॒नम्।
ऊ॒र्जः पु॒त्रं भ॑र॒तं सृ॒प्रदा॑नुं दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम्॥४०॥ऋ॰ १।७।३।३
व्याख्यान—हे मनुष्यो! “तमीळत” उस अग्नि की स्तुति करो। कैसा है वह अग्नि? जो “प्रथमम्” सब कार्यों से पहले वर्त्तमान और सबका आदिकारण है तथा “यज्ञसाधम्” सब संसार और विज्ञानादि यज्ञ का साधक (सिद्ध करनेवाला), सबका जनक है। हे “विशः” मनुष्यो! उस को ही स्वामी मानकर “आरीः” प्राप्त होओ, जिसको अपने दीनता से पुकारते, और जिसको विज्ञानादि से विद्वान् लोग सिद्ध करते और जानते हैं। “ऊर्जः पुत्रं भरतम्” पृथिव्यादि जगत् रूप अन्न का पुत्र, अर्थात् पालन करनेवाला तथा ‘भरत’, अर्थात् उसी अन्न का पोषण और धारण करनेवाला है। “सृप्रदानुम्” सब जगत् को चलने की शक्ति देनेवाला और ज्ञान का दाता है। उसी को “देवाः, अग्निं, धारयन् द्रविणोदाम्” देव (विद्वान् लोग) अग्नि कहते और धारण करते हैं। वही सब जगत् को ‘द्रविण’ अर्थात् निर्वाह के सब अन्न-जलादि पदार्थ और विद्यादि पदार्थों का देनेवाला है। उस अग्नि परमात्मा को छोड़के अन्य किसी की भक्ति वा याचना कभी किसी को न करनी चाहिए॥४०॥