मूल स्तुति
ग॒य॒स्फानो॑ अमीव॒हा व॑सु॒वित्पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः।
सु॒मि॒त्रः सो॑म नो भव॥३८॥ऋ॰ १।६।२१।२
व्याख्यान—हे परमात्मभक्त जीवो! अपना इष्ट जो परमेश्वर, सो “गयस्फानः” प्रजा, धन, जनपद और स्वराज्य का बढ़ानेवाला है, तथा “अमीवहा” शरीर, इन्द्रियजन्य और मानस रोगों का हनन (विनाश) करनेवाला है। “वसुवित्” सब पृथिव्यादि वसुओं का जाननेवाला है, अर्थात् सर्वज्ञ और विद्यादि धन का दाता है, “पुष्टिवर्धनः” अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा की पुष्टि का बढ़ानेवाला है। “सुमित्रः, सोम, नः, भव” सुष्ठु, यथावत् सबका परममित्र वही है, सो अपने उससे यह माँगें कि हे सोम! सर्वजगदुत्पादक! आप ही कृपा करके हमारे सुमित्र हों और हम भी सब जीवों के मित्र हों तथा अत्यन्त मित्रता आपसे ही रक्खें॥३८॥