मूल स्तुति
स व॑ज्र॒भृद्द॑स्यु॒हा भी॒म उ॒ग्रः स॒हस्त्र॑चेताः श॒तनी॑थ॒ ऋभ्वा॑।
च॒म्री॒षो न शव॑सा॒ पाञ्च॑जन्यो म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती॥३४॥ऋ॰ १।७।१०।२
व्याख्यान—हे दुष्टनाशक परमात्मन्! आप “वज्रभृत्” अच्छेद्य (दुष्टों के छेदक) सामर्थ्य से सर्वशिष्ट हितकारक, दुष्ट-विनाशक जो न्याय उसको धारण कर रहे हो, प्राणो वै वज्रः इत्यादि शतपथादि का प्रमाण है। अतएव “दस्युहा” दुष्ट, पापी लोगों का हनन करनेवाले हो। “भीमः” आपकी न्याय आज्ञा को छोड़नेवालों पर भयङ्कर भय देनेवाले हो। “सहस्रचेताः” सहस्त्रों विज्ञानादि गुणवाले आप ही हो। “शतनीथः” सैकड़ों=असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति करानेवाले हो। “ऋभ्वा” अत्यन्त विज्ञानादि प्रकाशवाले हो और सबके प्रकाशक हो तथा महान् वा महाबलवाले हो। “न, चम्रीषः” किसी की चमू (सेना) में वश को प्राप्त नहीं होते हो। “शवसा” स्वबल से आप “पाञ्चजन्यः” पाँच प्राणों के जनक हो। “मरुत्वान्” सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक हो, सो आप इन्द्र हमारी रक्षा के लिए प्रवृत्त हों, जिससे हमारा कोई काम बिगड़े नहीं॥३४॥