मूल स्तुति
न यस्य॑ दे॒वा दे॒वता॒ न मर्ता॒ आप॑श्च॒न शव॑सो॒ अन्त॑मा॒पुः।
स प्र॒रिक्वा॒ त्वक्ष॑सा॒ क्ष्मो दि॒वश्च॑ म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती॥३२॥ऋ॰ १।७।१०।५
व्याख्यान—हे अनन्तबल! “न यस्य” जिस परमात्मा का और उसके बलादि सामर्थ्य का “देवाः” इन्द्रिय, “देवताः” विद्वान्, सूर्यादि तथा बुद्ध्यादि, “न मर्ताः” साधारण मनुष्य, “आपश्चन” आप, प्राण, वायु, समुद्र इत्यादि सब, “अन्तम्” पार कभी नहीं पा सकते, किन्तु “प्ररिक्वा” प्रकृष्टता से इनमें व्यापक होके अतिरिक्त (इनसे विलक्षण), भिन्न हो परिपूर्ण हो रहा है। सो “मरुत्वान्” अत्यन्त बलवान् “इन्द्रः” परमात्मा “त्वक्षसा” शत्रुओं के बल का छेदक, बल से “क्ष्मः” पृथिवी को “दिवश्च” स्वर्ग को धारण करता है, सो “इन्द्रः” परमात्मा “ऊती” हमारी रक्षा के लिए “भवतु” तत्पर हो॥३२॥