मूल स्तुति
वसु॒र्वसु॑पति॒र्हि क॒मस्य॑ग्ने वि॒भाव॑सुः।
स्याम॑ ते सुम॒तावपि॑॥३०॥ऋ॰ ६।३।४०।४
व्याख्यान—हे परमात्मन्! आप “वसुः” सबको अपने में बसानेवाले और सबमें आप बसनेवाले हो तथा “वसुपतिः” पृथिव्यादि वासहेतुभूतों के पति हो। “कमसि” हे अग्ने! विज्ञानानन्दस्वप्रकाशस्वरूप! आप ही सबके सुखकारक और सुखस्वरूप हो तथा “विभावसुः” सत्यस्वप्रकाशकैधनमय हो। हे भगवन्! ऐसे जो आप, उन “ते” आपकी “सुमतौ” अत्यन्तोत्कृष्ट ज्ञान और परस्पर प्रीति में हम लोग स्थिर हों॥३०॥