मूल प्रार्थना
नेह भ॒द्रं र॑क्ष॒स्विने॒ नाव॒यै नोप॒या उ॒त।
गवे॑ च भ॒द्रं धे॒नवे॑ वी॒राय॑ च श्रवस्य॒ते॑ऽने॒हसो॑ व ऊ॒तयः॑
सु ऊ॒तयो॑ व ऊ॒तयः॑॥२९॥ऋ॰ ६।४।९।२
व्याख्यान—हे भगवन्! “रक्षस्विने भद्रं, नेह” पापी, हिंसक, दुष्टात्मा को इस संसार में सुख मत देना। “नावयै” धर्म से विपरीत चलनेवाले को सुख कभी मत हो “नोपया उत” तथा अधर्मी के समीप रहनेवाले उसके सहायक को भी सुख नहीं हो। ऐसी प्रार्थना आपसे हमारी है कि दुष्ट को सुख कभी न होना चाहिए, नहीं तो कोई जन धर्म में रुचि ही न करेगा, किन्तु इस संसार में धर्मात्माओं को ही सुख सदा दीजिए तथा हमारी शमदमादियुक्त इन्द्रियाँ, दुग्ध देनेवाली गौ आदि, वीरपुत्र और शूरवीर भृत्य “श्रवस्यते” विद्या, विज्ञान और अन्नाद्यैश्वर्ययुक्त हमारे देश के राजा और धनाढ्यजन तथा इनके लिए “अनेहसः” निष्पाप, निरुपद्रव, स्थिर, दृढ़ सुख हो “सु ऊतयो व ऊतयः” (वः युष्माकं, बहुवचनमादरार्थम्) हे सर्वरक्षकेश्वर! आप सर्वरक्षण, अर्थात् पूर्वोक्त सब धर्मात्माओं के रक्षक हैं। जिन पर आप रक्षक हो उनको सदैव “भद्रम्” कल्याण, (परमसुख) प्राप्त होता है, अन्य को नहीं॥२९॥