मूल प्रार्थना
तन्न॒ इन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॒ग्निराप॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ जुषन्त।
शर्म॑न्त्स्याम म॒रुता॑मु॒पस्थे॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥२७॥ऋ॰ ५।३।२७।५
व्याख्यान—हे भगवन्! “तन्न, इन्द्रः” सूर्य, “वरुणः” चन्द्रमा, “मित्रः” वायु, “अग्निः” अग्नि, “आपः” जल, “ओषधीः” वृक्षादि वनस्थ सब पदार्थ आपकी आज्ञा से सुखरूप होकर हमारा “जुषन्त” सेवन करें। हे रक्षक! “मरुतामुपस्थे” प्राणादि के सुसमीप बैठे हुए हम आपकी कृपा से “शर्मन्त्स्याम” सुखयुक्त सदा रहें, “स्वस्तिभिः” सब प्रकार के रक्षणों से “यूयं पात” (आदरार्थं बहुवचनम्) आप हमारी रक्षा करो, किसी प्रकार से हमारी हानि न हो॥२७॥