मूल स्तुति
त्वम॑सि प्र॒शस्यो॑ वि॒दथे॑षु सहन्त्य।
अग्ने॑ र॒थीर॑ध्व॒राणा॑म्॥२६॥ऋ॰ ५।८।३५।२
व्याख्यान—हे “अग्ने” सर्वज्ञ! तू ही सर्वत्र “प्रशस्यः” स्तुति करने के योग्य है, अन्य कोई नहीं। “विदथेषु” यज्ञ और युद्धों में आप ही स्तोतव्य हो। जो तुम्हारी स्तुति को छोड़के अन्य जड़ादि की स्तुति करता है उसके यज्ञ तथा युद्धों में विजय कभी सिद्ध नहीं होता है। “सहन्त्य” शत्रुओं के समूहों के आप ही घातक हो। “रथीरध्वराणाम्” अध्वरों, अर्थात् यज्ञ और युद्धों में आप ही रथी हो। हमारे शत्रुओं के योद्धाओं को जीतनेवाले हो, इस कारण से हमारा पराजय कभी नहीं हो सकता॥२६॥