मूल स्तुति
विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ य॑तो व्र॒तानि॑ पस्प॒शे।
इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥२३॥ऋ॰ १।२।७।४
व्याख्यान—हे जीवो! “विष्णोः” व्यापकेश्वर के किये दिव्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि कर्मों को तुम देखो। (प्रश्न)—किस हेतु से हम लोग जानें कि ये व्यापक विष्णु के कर्म हैं? (उत्तर)—“यतो व्रतानि पस्पशे” जिससे हम लोग ब्रह्मचर्यादि व्रत तथा सत्य-भाषणादि व्रत और ईश्वर के नियमों का अनुष्ठान करने को सुशरीरधारी होके समर्थ हुए हैं, यह काम उसी के सामर्थ्य से है, क्योंकि “इन्द्रस्य, युज्यः, सखा” इन्द्रियों के साथ वर्त्तमान कर्मों का कर्त्ता, भोक्ता जो जीव इसका वही एक योग्य मित्र है, अन्य कोई नहीं, क्योंकि ईश्वर जीव का अन्तर्यामी है, उससे परे जीव का हितकारी कोई और नहीं हो सकता, इससे परमात्मा से सदा मित्रता रखनी चाहिए॥२३॥