मूल प्रार्थना
स्थि॒रा वः॑ स॒न्त्वायु॑धा परा॒णुदे॑ वी॒ळू उ॒त प्र॑ति॒ष्कभे॑।
यु॒ष्माक॑मस्तु॒ तवि॑षी॒ पनी॑यसी॒ मा मर्त्य॑स्य मा॒यिनः॑॥२२॥ऋ॰ १।३।१८।२
व्याख्यान—(परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति) ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि, हे जीवो! “वः” (युष्माकम्) तुम्हारे आयुध, अर्थात् शतघ्नी (तोप), भुशुण्डी (बन्दूक), धनुष-बाण, असि (तलवार), शक्ति (बरछी) आदि शस्त्र स्थिर और “वीळू” दृढ़ हों । किस प्रयोजन के लिए? “पराणुदे” तुम्हारे शत्रुओं के पराजय के लिए, जिससे तुम्हारे कोई दुष्ट शत्रु लोग कभी दुःख न दे सकेंऔर “उत, प्रतिष्कभे” शत्रुओं के वेग को थामने के लिए “युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी” तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना सब संसार में प्रशंसित हो, जिससे तुमसे लड़ने को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो, परन्तु “मा मर्त्यस्य मायिनः” जो अन्यायकारी मनुष्य है, उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्तिरहित मनुष्य का बल और राज्यैश्वर्यादि कभी मत बढ़ो, उसका पराजय ही सदा हो। हे बन्धुवर्गो! आओ, अपने सब मिलके सब दुःखों का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करें, जो अपने को वह ईश्वर आशीर्वाद देवे, जिससे अपने शत्रु कभी न बढ़ें॥२२॥