मूल स्तुति
तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑।
दि॒वी॑व॒ चक्षु॒रात॑तम्॥२१॥ऋ॰ १।२।७।२०
व्याख्यान—हे विद्वान् और मुमुक्षु जीवो! विष्णु का जो परम अत्यन्तोत्कृष्ट पद (पदनीय) सबके जानने योग्य, जिसको प्राप्त होके पूर्णानन्द में रहते हैं फिर वहाँ से कभी दुःख में नहीं गिरते, उस पद को “सूरयः” धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, सबके हितकारक विद्वान् लोग यथावत् अच्छे विचार से देखते हैं, वह परमेश्वर का पद है। किस दृष्टान्त से कि जैसे आकाश में “चक्षुः” नेत्र की व्याप्ति वा सूर्य का प्रकाश सब ओर से व्याप्त है, वैसे ही “दिवीव, चक्षुराततम्” परब्रह्म सब जगह में परिपूर्ण, एकरस भर रहा है। वही परमपदस्वरूप परमात्मा परमपद है, इसी की प्राप्ति होने से जीव सब दुःखों से छृटता है, अन्यथा जीव को कभी परमसुख नहीं मिलता। इससे सब प्रकार परमेश्वर की प्राप्ति में यथावत् प्रयत्न करना चाहिए॥२१॥