मूल स्तुति
अ॒ग्निर्होता॑ क॒विक्र॑तुः स॒त्यश्चि॒त्रश्र॑वस्तमः।
दे॒वो दे॒वेभि॒रा ग॑मत्॥५॥ऋ॰ १।१।१।५
व्याख्यान—हे सर्वदृक्! सबको देखनेवाले “क्रतुः” सब जगत् के जनक “सत्यः” अविनाशी, अर्थात्, कभी जिसका नाश नहीं होता, “चित्रश्रवस्तमः” आश्चर्यश्रवणादि, आश्चर्यगुण, आश्चर्यशक्ति, आश्चर्य- स्वरूपवान् और अत्यन्त उत्तम आप हो, जिन आपके तुल्य वा आपसे बड़ा कोई नहीं है। हे जगदीश! “देवेभिः” दिव्य गुणों के सह वर्त्तमान हमारे हृदय में आप प्रकट हों, सब जगत् में भी प्रकाशित हों, जिससे हम और हमारा राज्य दिव्यगुणयुक्त हो। वह राज्य आपका ही है, हम तो केवल आपके पुत्र तथा भृत्यवत् हैं॥५॥