मूल स्तुति
अ॒ग्निः पूर्वे॑भि॒र्ऋषि॑भि॒रीड्यो॒ नूत॑नैरु॒त।
स दे॒वाँ एह व॑क्षति॥४॥ऋ॰ १।१।१।२
व्याख्यान—हे सब मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वराग्ने! “पूर्वेभिः” विद्या पढ़े हुए प्राचीन “ऋषिभिः” मन्त्रार्थ देखनेवाले विद्वान् तथा “नूतनैः” वेदार्थ पढ़नेवाले नवीन ब्रह्मचारियों से “ईड्यः” स्तुति के योग्य “उत” और जो हम लोग विद्वान् वा मूर्ख हैं, उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो, सो स्तुति को प्राप्त हुए आप हमारे और सब संसार के सुख के लिए दिव्य गुण, अर्थात् विद्यादि को कृपा से प्राप्त करो, आप ही सबके इष्टदेव हो॥४॥