मूल प्रार्थना
यद॒ङ्ग दा॒शुषे॒ त्वमग्ने॑ भ॒द्रं क॑रि॒ष्यसि॑।
तवेत्तत् स॒त्यम॑ङ्गिरः॥६॥ऋ॰ १।१।२।१
व्याख्यान—हे “अङ्ग” मित्र! जो आपको आत्मादि दान करता है, उसको “भद्रम्” व्यावहारिक और पारमार्थिक सुख अवश्य देते हो। हे “अङ्गिरः” प्राणप्रिय! यह आपका सत्यव्रत है कि स्वभक्तों को परमानन्द देना, यही आपका स्वभाव हमको अत्यन्त सुखकारक है, आप मुझको ऐहिक और पारमार्थिक—इन दोनों सुखों का दान शीघ्र दीजिए, जिससे सब दुःख दूर हों। हमको सदा सुख ही रहे॥६॥