मूल प्रार्थना
सद॑स॒स्पति॒मद्भु॑तं प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य॑म्।
स॒निं मे॒धाम॑यासिष॒ स्वाहा॑॥५२॥यजु॰ ३२।१३
व्याख्यान—हे सभापते! विद्यामय न्यायकारिन्! सभासद् सभाप्रिय! सभा ही हमारा राजा न्यायकारी हो, ऐसी इच्छावाले हमको आप कीजिए। किसी एक मनुष्य को हम लोग राजा कभी न बनावें, किन्तु आपको ही हम लोग सभापति, सभाध्यक्ष, राजा मानें। आप अद्भुत, आश्चर्य, विचित्र शक्तिमय हैं तथा प्रियस्वरूप ही हैं, इन्द्र जो जीव, उसके, कमनीय (कामना के योग्य) आप ही हैं। “सनिम्” सम्यक् भजनीय और सेव्य भी सब जीवों के आप ही हैं। “मेधाम्” विद्या, सत्यधर्मादि धारणावाली बुद्धि को हे भगवन्! मैं याचता हूँ, सो आप कृपा करके मुझको देओ। “स्वाहा” यही स्वकीय वाक् “आह” कहती है कि ईश्वर से भिन्न कोई जीवों को सेव्य नहीं है। ऐसी वेद में ईश्वराज्ञा है, सो सब मनुष्यों को अवश्य मानना योग्य है॥५२॥