मूल प्रार्थना
चतुः॑ स्त्रक्ति॒र्नाभि॑र्ऋ॒तस्य॑ स॒प्रथाः॒ स नो॑ वि॒श्वायुः॑ स॒प्रथाः॒ स नः॑
स॒र्वायुः॑ स॒प्रथाः॑। अप॒ द्वेषो॒ऽअप॒ ह्वरो॒ऽन्यव्र॑तस्य सश्चिम॥४१॥
—यजुः॰ ३८।२०
व्याख्यान—हे महावैद्य! सर्वरोगनाशकेश्वर! चार कोनेवाली नाभि (मर्मस्थान) “ऋतस्य” ऋत [रस] की भरी, नैरोग्य और विज्ञान का घर “सप्रथाः” विस्तीर्ण सुखयुक्त आपकी कृपा से हो। तथा आपकी कृपा से “विश्वायुः” पूर्ण आयु हो। आप जैसे सर्वसामर्थ्य से विस्तीर्ण हो, वैसे ही विस्तृत सुखयुक्त विस्तारसहित सर्वायु हमको दीजिए। हे शान्तस्वरूप! हम द्वेषरहित आपकी कृपा से तथा “अपह्वरः” चलन-(कम्पन)-रहित हों, आपकी आज्ञा और आपसे भिन्न को लेशमात्र भी ईश्वर न मानें, यही हमारा व्रत है, इससे अन्य व्रत को कभी न मानें, किन्तु आपको “सश्चिम” सदा सेवें, यही हमारा परमनिश्चय है। इस परमनिश्चय की रक्षा आप ही कृपा से करें॥४१॥