मूल प्रार्थना
यन्मे॑ छि॒द्रं चक्षु॑षो॒ हृद॑यस्य॒ मन॑सो॒ वाति॑ तृण्णं॒ बृह॒स्पति॑र्मे॒
तद्द॑धातु। शं नो॑ भवतु॒ भुव॑नस्य॒ यस्पतिः॑॥३९॥यजु॰ ३६।२
व्याख्यान—हे सर्वसन्धायकेश्वर! मेरे चक्षु (नेत्र), हृदय (प्राणात्मा), मन, बुद्धि, विज्ञान, विद्या और सब इन्द्रिय इनके छिद्र=निर्बलता, राग-द्वेष, चाञ्चल्य यद्वा मन्दत्वादि विकार, इनका निवारण (निर्दोष) करके सत्यधर्मादि में धारण आप ही करो, क्योंकि आप बृहस्पति=(सबसे बड़े) हो, सो अपनी बड़ाई की ओर देखके इस बड़े काम को आप अवश्य करें, जिससे हम लोग आप और आपकी आज्ञा के सेवन में यथार्थ तत्पर हों। मेरे सब छिद्रों को आप ही ढाँकें। आप सब भुवनों के पति हैं, इसलिए आपसे वारम्वार प्रार्थना हम लोग करते हैं कि सब दिन हम लोगों पर कृपादृष्टि से कल्याणकारक हों। हे परमात्मन्! आपके सिवाय हमारा कल्याणकारक कोई नहीं है, हमको आपका ही सब प्रकार का भरोसा है, सो आप ही पूरा करेंगे॥३९॥