मूल स्तुति
या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॒श्वकर्मन्नु॒तेमा।
शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं य॑जस्व त॒न्वं वृधा॒नः॥३८॥
यजु॰ १७।२१
व्याख्यान—हे सर्वविधायक विश्वकर्मन्नीश्वर! जो तुम्हारे स्वरचित उत्तम, मध्यम, निकृष्ट त्रिविध धाम (लोक) हैं, उन सब लोकों की शिक्षा हम आपके सखाओं को करो, यथार्थविद्या होने से सब लोकों में सदा सुखी ही रहें तथा इन लोकों के “हविषि” दान और ग्रहण व्यवहार में हम लोग चतुर हों। हे “स्वधावः” स्वसामर्थ्यादि धारण करनेवाले! हमारे शरीरादि पदार्थों को आप ही बढ़ानेवाले हैं, हमारे लिए विद्वानों का सत्कार, सब सज्जनों के सुखादि की सङ्गति, विद्यादि गुणों का दान आप स्वयं करो। आप अपनी उदारता से ही हमको सब सुख दीजिए, किञ्च हम लोग तो आपके प्रसन्न करने में कुछ भी समर्थ नहीं हैं। सर्वथा आपके अनुकूल वर्त्तमान नहीं कर सकते, परन्तु आप तो अधमोद्धारक हैं, इससे हमको स्वकृपाकटाक्ष से सुखी करें॥३८॥