मूल स्तुति
तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद् दू॒रे तद्व॑न्ति॒के।
तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः॥१२॥यजु॰ ४०।५
व्याख्यान—“तद् (ब्रह्म) एजति” वह परमात्मा सब जगत् को यथायोग्य अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है सो अविद्वान् लोग ईश्वर में भी आरोप करते हैं कि वह भी चलता होगा, परन्तु वह सबमें पूर्ण है, कभी चलायमान नहीं होता, अतएव “तन्नैजति (यह प्रमाण है), स्वतः वह परमात्मा कभी नहीं चलता, एकरस निश्चल होके भरा है। विद्वान् लोग इसी रीति से ब्रह्म को जानते हैं “तद् दूरे” अधर्मात्मा, अविद्वान्, विचारशून्य, अजितेन्द्रिय, ईश्वरभक्तिरहित इत्यादि दोषयुक्त मनुष्यों से वह ईश्वर बहुत दूर है, अर्थात् वे कोटि-कोटि वर्ष तक उसको नहीं प्राप्त होते, इससे वे तब तक जन्म-मरणादि दुःखसागर में इधर-उधर घूमते-फिरते हैं कि जब तक उसको नहीं जानते “तद्वन्तिके” सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, जितेन्द्रिय, सर्वजनोपकारक, विद्वान्, विचारशील पुरुषों के वह ‘अन्तिके’ अत्यन्त निकट है, किंच वह सबके आत्माओं के बीच में अन्तर्यामी व्यापक होके सर्वत्र पूर्ण भर रहा है, सो आत्मा का भी आत्मा है, क्योंकि परमेश्वर सब जगत् के भीतर और बाहर तथा मध्य, अर्थात् एक तिलमात्र भी उसके विना खाली नहीं है। वह अखण्डैकरस सबमें व्याप रहा है, उसी को जानने से ही सुख और मुक्ति होती है, अन्यथा नहीं॥१२॥