मूल स्तुति
वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त्।
तमे॒व वि॑दि॒त्वाति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒ नान्यः पन्था॒ विद्य॒तेऽय॑नाय॥८॥यजु॰ ३१।१८
व्याख्यान—सहस्त्रशीर्षादि विशेषणोक्त पुरुष सर्वत्र परिपूर्ण (पूर्णत्वात्पुरिशयनाद्वा पुरुष इति निरुक्तोक्तेः) है, उस पुरुष को मैं जानता हूँ, अर्थात् सब मनुष्यों को उचित है कि उस परमात्मा को अवश्य जानें, उसको कभी न भूलें, अन्य किसी को ईश्वर न जानें। वह कैसा है कि “महान्तम्” बड़ों से भी बड़ा, उससे बड़ा वा तुल्य कोई नहीं है। “आदित्यवर्णम्” आदित्यादि का रचक और प्रकाशक वही एक परमात्मा है तथा वह सदा स्वप्रकाशस्वरूप ही है, किंच “तमसः परस्तात्” तम जो अन्धकार, अविद्यादि दोष उससे रहित ही है तथा स्वभक्त, धर्मात्मा, सत्य-प्रेमी जनों को भी अविद्यादिदोषरहित सद्यः करनेवाला वही परमात्मा है। विद्वानों का ऐसा निश्चय है कि परब्रह्म के ज्ञान और उसकी कृपा के विना कोई जीव कभी सुखी नहीं होता। “तमेव विदित्वेत्यादि” उस परमात्मा को जानके ही जीव मृत्यु को उल्लङ्घन कर सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि “नाऽन्यः, पन्था विद्यतेऽयनाय” विना परमेश्वर की भक्ति और उसके ज्ञान के मुक्ति का मार्ग कोई नहीं है, ऐसी परमात्मा की दृढ़ आज्ञा है। सब मनुष्यों को इसमें ही वर्त्तना चाहिए और सब पाखण्ड और जञ्जाल अवश्य छोड़ देना चाहिए॥८॥