मूल प्रार्थना
दृते॒ दृ ह॑ मा मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षन्ताम्।
मि॒त्रस्या॒हं चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षे।
मि॒त्रस्य॒ चक्षु॑षा॒ समी॑क्षामहे॥३॥यजु॰ ३६।१८
व्याख्यान—हे अनन्तबल महावीर ईश्वर! “दृते” हे दुष्टस्वभावनाशक विदीर्णकर्म अर्थात् विज्ञानादि शुभ गुणों का नाश कर्म करनेवाला मुझको मत रक्खो (स्थिर मत करो), किन्तु उससे मेरे आत्मादि को उठाके विद्या, सत्य, धर्मादि शुभगुणों में सदैव स्वकृपासामर्थ्य ही से स्थित करो “दृंह मा” हे परमैश्वर्यवन् भगवन्! धर्मार्थकाममोक्षादि तथा विद्या-विज्ञानादि दान से अत्यन्त मुझको बढ़ा “मित्रस्येत्यादि॰” हे सर्वसुहृदीश्वर, सर्वान्तर्यामिन्! सब भूत=प्राणिमात्र मित्र की दृष्टि से यथावत् मुझको देखें, सब मेरे मित्र हो जायें, कोई मुझसे किञ्चिन्मात्र भी वैर-दृष्टि न करे। “मित्रस्याहं चेत्यादि” हे परमात्मन्! आपकी कृपा से मैं भी निर्वैर होके सब भूत प्राणी और अप्राणी चराचर जगत् को मित्र की दृष्टि से स्वात्म, स्वप्राणवत् प्रिय जानूँ, अर्थात् “मित्रस्य, चक्षुषेत्यादि” पक्षपात छोड़के सब जीव देहधारीमात्र अत्यन्त प्रेम से परस्पर वर्त्तमान करें। अन्याय से युक्त होके किसी पर कभी हम लोग न वर्तें। यह परमधर्म का सब मनुष्यों के लिए परमात्मा ने उपदेश किया है, सबको यही मान्य होने योग्य है॥३॥