॥ओ३म् तत्सत्परमात्मने नमः॥
॥अथ द्वितीयः प्रकाशः॥
ओ३म् स॒ह ना॑ववतु स॒ह नौ॑ भुनक्तु। स॒ह वी॒र्य्यं॑ करवावहै।
ते॒ज॒स्वि ना॒वधी॑तमस्तु॒ मा वि॑द्विषा॒वहै॑।
ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥१॥
—तैत्तिरीयारण्यके ब्रह्मानन्दवल्ली प्रपा॰ १०। प्रथमानुवाकः १॥
व्याख्यान—हे सहनशीलेश्वर! आप और हम लोग परस्पर प्रसन्नता से रक्षक हों। आपकी कृपा से हम लोग सदैव आपकी ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें तथा आपको ही पिता, माता, बन्धु, राजा, स्वामी, सहायक, सुखद, सुहृद् परमगुर्वादि जानें, क्षणमात्र भी आपको भूलके न रहें। आपके तुल्य वा अधिक किसी को कभी न जानें। आपके अनुग्रह से हम सब लोग परस्पर प्रीतिमान्, रक्षक, सहायक, परमपुरुषार्थी हों, एक दूसरे का दुःख न देख सकें। स्वदेशस्थादि मनुष्यों को अत्यन्त परस्पर निर्वैर, प्रीतिमान्, पाखण्डरहित करें “सह, नौ, भुनक्तु” तथा आप और हम लोग परस्पर परमानन्द का भोग करें।
हम लोग परस्पर हित से आनन्द भोगें कि आप हमको अपने अनन्त परमानन्द के भागी करें, उस आनन्द से हम लोगों को क्षणमात्र भी अलग न रक्खें। “सह, वीर्यं करवावहै” आपके सहाय से परमवीर्य जो सत्यविद्यादि, उसको परस्पर परमपुरुषार्थ से प्राप्त करें। “तेजस्वि नावधीतमस्तु” हे अनन्त विद्यामय भगवन्! आपकी कृपादृष्टि से हम लोगों का पठनपाठन परम विद्या[युक्त] हो तथा संसार में सबसे अधिक प्रकाशित हों और अन्योन्य प्रीति से, परमवीर्य पराक्रम से निष्कण्टक चक्रवर्ती राज्य भोगें। हममें सब नीतिमान् सज्जन पुरुष हों और आप हम लोगों पर अत्यन्त कृपा करें, जिससे कि हम लोग नाना पाखण्ड, असत्य, वेदविरुद्ध मतों को शीघ्र छोड़के एक सत्यसनातनमतस्थ हों, जिससे सब विद्वेष के मूल जो पाखण्डमत, वे सब सद्यः प्रलय को प्राप्त हों। “मा, विद्विषावहै” और हे जगदीश्वर! आपके सामर्थ्य से हम लोगों में परस्पर विद्वेष, ‘विरोध’, अर्थात् अप्रीति न रहै तथा हम लोग कभी परस्पर विद्वेष, विरोध न करें, किन्तु सब तन, मन, धन, विद्या इनको परस्पर सबके सुखोपकार में परमप्रीति से लगावें।
“ओ३म् शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः” हे भगवन्! तीन प्रकार के सन्ताप जगत् में हैं—एक आध्यात्मिक (शारीरिक) जो ज्वरादि पीड़ा होने से होता है, दूसरा आधिभौतिक ताप जो शत्रु, सर्प, व्याघ्र, चौरादिकों से सन्ताप होता है और तीसरा जो मन, इन्द्रिय, अग्नि, वायु, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अतिशीत, अत्युष्णता इत्यादि से होता है, सो आधिदैविक ताप है। हे कृपासागर! आप इन तीनों तापों की शीघ्र निवृत्ति करें, जिससे हम लोग अत्यानन्द में और आपकी अखण्ड उपासना में सदा रहैं। हे विश्वगुरो! मुझको असत् (मिथ्या) और अनित्य पदार्थ तथा असत् काम से छुड़ाके सत्य तथा नित्य पदार्थ और श्रेष्ठ व्यवहार में स्थिर कर। हे जगन्मङ्गलमय! (सर्वदुःखेभ्यो मोचयित्वा सर्वसुखानि प्रापय) सब दुःखों से मुझको छुड़ाके, सब सुखों को प्राप्त कर। (हे प्रजापते! सुप्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन परमैश्वर्येण संयोजय) हे प्रजापते! मुझको अच्छी प्रजा—पुत्रादि, हस्त्यश्वगवादि उत्तम पशु, सर्वोत्कृष्ट विद्या और चक्रवर्ती राज्यादि परमैश्वर्य जो स्थिर परमसुखकारक उसको शीघ्र प्राप्त कर। हे परमवैद्य! (सर्वरोगात्पृथक् कृत्य नैरोग्यं देहि) सर्वथा मुझको सब रोगों से छुड़ाके परम नैरोग्य दे। हे महाराजाधिराज! (मनसा वाचा कर्मणा अज्ञानेन प्रमादेन वा यद्यत्पापं कृतं मया, तत्तत्सर्वं कृपया क्षमस्व ज्ञानपूर्वकपापकरणान्निवर्तयतु माम्) मन से, वाणी से और कर्म से, अज्ञान वा प्रमाद से जो-जो पाप किया हो, किंवा करने का हो, उस-उस मेरे पाप को क्षमा कर, और ज्ञानपूर्वक पाप करने से भी मुझको रोक दे, जिससे मैं शुद्ध होके आपकी सेवा में स्थिर होऊँ। हे न्यायाधीश! कुकामकुलोभकुमोहभयशोकालस्येर्ष्याद्वेषप्रमादविषयतृष्णानैष्ठुर्याभिमानदुष्टभावाविद्याभ्यो निवारय, एतेभ्यो विरुद्धेषूत्तमेषु गुणेषु संस्थापय माम्)
हे ईश्वर! कुकाम, कुलोभादि पूर्वोक्त दुष्ट दोषों को स्वकृपा से छुड़ाके श्रेष्ठ काम आदि में यथावत् मुझको स्थिर कर। मैं अत्यन्त दीन होके यही माँगता हूँ कि मैं आप और आपकी आज्ञा से भिन्न पदार्थ में कभी प्रीति न करूँ। हे प्राणपते, प्राणप्रिय, प्राणपितः, प्राणाधार, प्राणजीवन, स्वराज्यप्रद! मेरे प्राणपति आदि आप ही हो, मेरा सहायक आपके सिवाय कोई नहीं। हे राजाधिराज! जैसा सत्य-न्याययुक्त, अखण्डित आपका राज्य है, वैसा न्यायराज्य हम लोगों का भी आपकी ओर से स्थिर हो। आपके राज्य के अधिकारी किङ्कर अपने कृपाकटाक्ष से हमको शीघ्र ही कर। हे न्यायप्रिय! हमको भी न्यायप्रिय यथावत् कर। हे धर्माधीश! हमको धर्म में स्थिर रख। हे करुणामय पिता! जैसे माता और पिता अपने सन्तानों का पालन करते हैं, वैसे ही आप हमारा पालन करो॥१॥