मूलमन्त्र स्तुति विषय
अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्।
होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥२॥ ऋ॰ १।१।१।१
व्याख्यान—हे वन्द्येश्वराग्ने! आप ज्ञानस्वरूप हो, आपकी मैं स्तुति करता हूँ। सब मनुष्यों के प्रति परमात्मा का यह उपदेश है—हे मनुष्यो! तुम लोग इस प्रकार से मेरी स्तुति-प्रार्थना और उपासनादि करो। जैसे पिता वा गुरु अपने पुत्र वा शिष्य को शिक्षा करता है कि तुम पिता वा गुरु के विषय में इस प्रकार से स्तुति आदि का वर्त्तमान करना, वैसे सबके पिता और परम गुरु ईश्वर ने हमको अपनी कृपा से सब व्यवहार और विद्यादि पदार्थों का उपदेश किया है, जिससे हमको व्यवहार-ज्ञान और परमार्थ-ज्ञान होने से अत्यन्त सुख हो। जैसे सबका आदिकारण ईश्वर है, वैसे परमविद्या वेद का भी आदिकारण ईश्वर है।
हे सर्वहितोपकारक! आप “पुरोहितम्” सब जगत् के हितसाधक हो। हे यज्ञदेव! सब मनुष्यों के पूज्यतम और ज्ञान-यज्ञादि के लिए कमनीयतम हो। “ऋत्विजम्” सब ऋतु—वसन्त आदि के रचक, अर्थात् जिस समय जैसा सुख चाहिए, उस समय वैसे सुख के सम्पादक आप ही हो। “होतारम्” सब जगत् को समस्त योग और क्षेम के देनेवाले हो और प्रलय समय में कारण में सब जगत् का होम करनेवाले हो। “रत्नधातमम्” रत्न अर्थात् रमणीय पृथिव्यादिकों के धारण, रचन करनेवाले तथा अपने सेवकों के लिए रत्नों के धारण करनेवाले एक आप ही हो। हे सर्वशक्तिमन्! परमात्मन्! इसलिए मैं वारम्वार आपकी स्तुति करता हूँ, इसको आप स्वीकार कीजिए, जिससे हम लोग आपके कृपापात्र होके सदैव आनन्द में रहें॥२॥