दयानंद बावनी

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dayanand bavni

दयानंद बावनी

महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन पर प्रकाश डालता एक अनुपम काव्य संग्रह है गुजरात के एक प्रसिद्ध कवि श्री दुलेराय काराणी द्वारा यह विरचित है इस में 52 कविताओं का एक खास संग्रह है जिसे अरुणकुमार आर्यवीर ने अपना स्वर दिया है। इन कविताओं में स्वामी दयानंद के विचारों और उनके जीवन को सुंदरता से बयान किया है। यह संग्रह स्वामी दयानंद के महत्वपूर्ण विचारों तथा कृतियों का प्रकाशन करता है और हमें उनके महत्वपूर्ण संदेशों के प्रति जागरूक करता है। ऋषिवर के बहु आयामी जीवन का परिचय कराता है.. हृदयग्राही संगीत से युक्त है यह दयानंद बावनी..!!

Dayanand Bavni Lyrics

दयानन्द बावनी
कवि दूलेराय काराणी

वन्दु मात सरस्वती सुखदात्री सुखकंद।
वंदन भगवती भारती दिया है दयानन्द।।

०१- ओम्कार महिमा

अरूपी अकाम परिपूर्ण प्रेम-धर्म-धाम।
आदि में अनादि नाम एक ओंम्कार का।।

अखण्ड अखेद जाको वेद ने न पायो भेद।
अभेद अच्छेद निराकार निर्विकार का।।

भारत में ओही ओम्कार का जगानेवाला।
प्रकटा पुरुषवर तारक संसार का।।

काराणी कहत भाग्यवन्त आर्यभूमि तूने।
पाया है प्रसाद दयानन्द के दीदार का।।१।।

०२- अवतार

धन्न धर्मभूमि धन्न टंकारा की धरा धन्न।
जहां जन्म धरे धर्म धुरि के टंकारी है।।

उन्नीसवी सदी धन्न अस्सीवे सुवर्ष धन्न।
आषाढी संध्या हो धन्न दिन मनोहारी है।।

बाल ब्रह्मचारी वेदधर्म के विहारी धन्न।
धन्न मात धन्न तात कृष्णजी तिवारी है।।

आर्य अभिमान धन्न मूलजी नामाभिधान।
दया के निधान दयानन्द दयाधारी है।।२।।

०३- ज्ञानरात्रि

टंकारे में भयो भव्य क्रान्ति को अमोघ योग।
महाशिवरात्री को महान पर्व आयो है।।

शंकर की शक्ति भक्ति सुनी भक्तमण्डल की।
मुक्ति की उक्ति में मूलशंकर मोहायो है।।

पंडित पिता के संग चले शिवपूजन को।
बाल भगतराज सब भक्तन को भायो है।।

यही ज्ञानरात्रि ने भारत के दुलारे लाल।
वही बाल महात्मा के आत्म को जगायो है।।३।।

०४- शंकर को मूल

रात चली जात ढली जात आंख भक्तन की।
नींद ना सोहात नैन में मूल शंकर को।।

शंकर के लिंग पे मचाई धूम मूषकों ने।
भेद कछु भयो ना शंकर को कंकर को।।

अक्षत चंदन पर चूहों ने चलाई चोट।
फेंक डाले सारे महादेव के मंदर को।।

शंकर को मूल देख कंकर के मूल मूल-
शंकर लगत मूल शोचन शंकर को।।४।।

०५- यही त्रिपुरारी है ?

कहा यही देवन को देव महादेव आप ?
यही नीलकण्ठ वैकुण्ठ को विहारी है।।

अनाथों को नाथ आप ऐसो है अनाथ डाक।
डमरू के साथ जो पिनाक हस्तधारी है ?।।

काल हू को काल रुंडमाल जटाधारी कहा।
यही है कामारी जाको नेत्र प्रलयकारी है।।

शंकर को मूल मूलशंकर शोचत महा-
त्रिशूल को धारी कहा यही त्रिपुरारी है।।५।।

०६- प्रस्थान

गांव छोड़ा घर छोड़ा जागीर सों जर छोड़ा।
सुंदर सुभोजन मधुरतर छोड़ा है।।

धन छोड़ा धाम छोड़ा छोड़ा सुखदाता माता-
पिता भ्राता भगिनी का नाता तूने तोड़ा है।।

जगत का मोह जणकूल जान फोड़ा तूने।
जग जन कल्याण में जीवन को जोड़ा है।।

संसारी संबंध बंधनों का बन्ध छोड़ा अब।
देश धर्म को छुड़ाने दयानन्द दौड़ा है।।६।।

०७- संन्यास

दूर देहाभ्यास किया सानन्द संन्यास लिया।
तीव्र आत्मप्यास वेदाभ्यास ते बुझाय के।।

भए मूलशंकर से दयानन्द सरस्वती।
योग की जगाई ज्योत हिमाद्रि को जाय के।।

हिंसक पशुन बीच काय को झुकाय दीनो।
आत्मवत् भूतेषु को प्रेममन्त्र पाय के।।

काराणी कहत तप त्याग ज्ञान ध्यानहु से।
वृत्तियों को वश कीनो तन को तपाय के।।७।।

०८- गुरु की शरण में

भारत की एक भव्य विभूति विरजानन्द।
गुरुवर शरण में दयानन्द आयो है।।

प्रज्ञाचक्षु गुरुजी को क्रोधी स्वभाव सह्यो।
शिष्य को सुधर्म सहिष्णुता अपनायो है।।

वेदधर्मोद्धार-व्रत दिया गुरुदक्षिणा में।
या ते गुरुराज ने अपार हर्ष पायो है।।

काराणी कहत गुरुज्ञान से प्रकाशमान।
देव दयानन्द ने जगत में झुकायो है।।८।।

०९’- देश की दुर्दशा

भारत भूमि में वेद धूनि न सुनाई कहीं।
सुना बाईबल सुनाईं आयतें कुरान की।।

ईसु की ईमानदारी पादरी पडान लागे।
संग में सुनान लगीं आवाजें अजान की।।

काराणी कहत ‘‘बोडी बामनी’’ को जेसो खेत।
वैसी दशा भई सारे देश हिन्दुस्थान की।।

अधर्म का घोर अन्धकार देख-देख दयानन्द-।
ने उठाई डोर धर्म की कमान की।।९।।

१०- आर्यावर्त में अनाचार

सारे आर्यावर्त में न आर्यत्व को रह्यो अंश।
धर्म कर्म ध्वंस को अघोर काल आयो है।।

आतंक उत्ताप अभिशाप के सन्ताप साथ।
पाप को अमाप ताप क्षिति पे छवायो है।।

नाचत निशाचर हय राचत पिशाच प्रेत।
दुराचार राज दुराचारियों को भायो है।।

नीति-रीति नेम हय न व्हेम है विनाश वहां।
प्रेम का प्रकाश दयानन्द ने दिखायो है।।१०।।

११- ब्राह्मण

ब्राह्मणों ने कीनी ब्रह्मविद्या को विदेशपार।
अविद्या अज्ञान को अंधार जापे आयो है।।

विद्यादान ध्यान-धर्म ब्रह्म को न जान्यो मर्म।
पाचकों को कर्म एक विप्र-मनभायो है।।

वेद को न लखो भेद परस्पर भयो भेद।
सीमन्त प्रेतान्न-श्राद्ध खंत हु से खायो है।।

नहीं नेक टेक एक वर्ण में विवेक रेख।
देख देख दिल दयानन्द को दुखायो है।।११।।

१२- क्षत्रिय

भारत भूमि के रणधीर राजपूत वीर।
दुर्बल को रक्षक वो भक्षक सो भायो है।।

एक मुक्तिकाज लाख-लाख बलिदान दिए।
वो ही पराधीनता के पिंजर पुरायो है।।

न्याय नीति नियम नरेश में न रहे शेष।
फैशन के फेर-फेर फन्द में फसायो है।।

नहीं नेक टेक एक वर्ण में विवेक रेख।
देख देख दिल दयानन्द को दुखायो है।।१२।।

१३- वैश्य

ब्राह्मण क्षत्रिय शूद्र वर्ण को आधार वही।
वैश्य वर्ण मरण के चरण तक आयो है।।

वैश्य ने विसार दियो वैश्य धर्म को विचार।
वाको धर्म कर्म सब स्वार्थ में समायो है।।

कपटी कुटिल भयो जीवन जटिल भयो।
एक रक्त शोषण के रंग में रंगायो है।।

नहीं नेक टेक एक वर्ण में विवेक रेख।
देख देख दिल दयानन्द को दुखायो है।।१३।।

१४- शूद्र

बड़े-बड़े पडे वहां शूद्रन की कथा कौन।
शूद्र पे समुद्र दुःख दर्द को छवायो है।।

धर्म भयो छुआछूत शूद्र भयो है अछूत।
धर्म की आड में भूत धर्म हु को आयो है।।

काराणी कहत सारे हिन्दवे समाज बीच।
शूद्रन ने अंश एक प्रेम को न पायो है।।

नहीं नेक टेक एक वर्ण में विवेक रेख।
देख देख दिल दयानन्द को दुखायो है।।१४।।

१५- चातुर्वर्ण

ब्रह्मविद्यायुक्त वर्ण ब्राह्मण जो शीर्शरूप।
हो गए विमुक्त वही उक्त अधिकार ते।।

क्षत्रिय बाहुस्वरूप हीन पराधीन भये।
मुक्ति के सुभक्त गिरे शक्ति के संस्कार ते।।

वैश्य उदररूप वो विशेष रोगग्रस्त भये।
भये ख्वार खस्त अविवेक व्यवहार ते।।

काराणी कहत आर्य देह के आधारथंब।
शूद्ररूप पैर काट डारे है कुठार ते।।१५।।

१६- संगठन

जहां वर्ण चार वहां आज तो अपार भये।
हिंदु-हिन्दुत्व में भेद-भाव को बढायो है।।

आपस की फूट चली छूट मारकूट चली।
विधर्मी की लूट चली गांठ को गंवायो है।।

आर्यत्व की एकता में आई है जुदाई ऐसी।
क्षीणता में क्षय को असाध्य रोग आयो है।।

काराणी कहत वाको महर्षि ने पायो भेद।
अभेद को सूत्र संगठन सिखलायो है।।१६।।

१७- शुद्धि

खुले रखे द्वार धर्म छोड़ जानेवाले काज।
आनेवाले काज दोष दीनो है अशुद्धि को।।

अति मतिमन्द अंध धर्म अधिकारी भये।
कुबुद्धि के धारी भये बेच मारी बुद्धि को।।

ज्ञानी बन ज्ञान के घमण्ड में गंवाय दीनो।
काराणी कहत सारे देश की समृद्धि को।।

ऐसी विपरीत आर्यावर्त की विपत देख।
स्वामीजी ने सत्य समझाय दीनो शुद्धि को।।१७।।

१८- अधर्म-अंधकार

धर्म गयो धरणी में आगयो अधर्मयुग।
पाप परितापन में भारत बेजार था।।

तांत्रिकों का तन्त्र-मन्त्र वाममार्ग का विहार।
पूर्ण पोपलीला का प्रसार पारावार था।।

दुष्ट को न दण्ड था उद्दण्ड को घमण्ड था।
प्रचण्ड खण्ड-खण्ड में पाखण्ड का प्रचार था।।

वैर था विकार था धिक्कार भरा भारत में।
खड़ा द्वार-द्वार अविद्या का अन्धकार था।।१८।।

१९- न तस्य प्रतिमा अस्ति

लोगों ने बनायी प्रभु प्रतिमा पूजनकाज।
अपनी अपूर्णताएं उनमें लगाई है।।

प्रतिमा को लगे भूख-प्यास-शीत-ताप लगे।
सोने जगाने के लिए घण्टडी बनाई है।।

काराणी कहत जड़ पत्थर के पूजन ते।
तन-मन-जीवन में जड़ता जमाई है।।

चेतन के चन्द दयानन्द ने दिखाई दीनो।
न तस्य प्रतिमाऽस्ति ये वेद की दुहाई है।।१९।।

२०- कलिकाल

नेह भयो नष्ट अवशेष कष्ट क्लेश भयो।
देश में विशेष भयो विष व्हेम-व्याल को।।

धर्म दूर-दूर भयो अधर्म को पूर भयो।
धूरत असुर भयो क्रूर कलिकाल को।।

काराणी कहत सुसमर्थ वेदोंवाले तूने
काट डाले काले कलि-कपट के जाल को।।

दीन को दयाल भयो दुष्ट-दिल साल भयो।
भारत को लाल भयो काल महाकाल को।।२०।।

२१- बानी में भवानी है

काले कर्मचारियों के काल के कमान जैसी।
जुग की जबान रामबाण तेरी बानी है।।

केते-केते कोटि पाप पाखण्डों के काटिबे को।
तेरी बानी तेग ताको तेजदार पानी है।।

बानी महारानी हिंदी गंदी थी मनाती ताको।
तूने ही पिछानी तेरे स्नेह ते सोहानी है।।

अविद्या असत असुरन के बिदारिबे को।
तेरी वज्र गर्जना सी बानी में भवानी है।।२१।।

२२- दोन दयानन्द को एक दयानन्द तू

ब्रह्मचर्य पुष्ट तेरे देह का अदम्य तेज।
वीर आर्य धर्म का प्रचण्ड मार्तण्ड तू।।

काम क्रोध लोभ मोह मत्सर में मन्द अति।
सारे आर्यावर्त के उत्कर्ष में अमंद तू।।

प्रतिभा प्रभाववन्त शान्त दाना सौम्य सन्त।
काराणी कहत ऋतु शरद को चंद तू।।

दया को आनन्द तू कि आनन्द की दया तू कि।
दोन दया आनन्द को एक दयानन्द तू।।२२।।

२३- बोल-बाला

धर्म को उठानेवाला अधर्म को ढानेवाला।
आंधी को उड़ानेवाला ज्ञान का उजाला तू।।

आप ही के आप वस्त्रालंकारें लुटानेवाला।
कौपीन लगानेवाला नेता ही निराला तू।।

आर्यवर आला प्रेम पीयूष पिलानेवाला।
वीर गान गानेवाला वो ही वेदोंवाला तू।।

काराणी कहत वेद बंसी के बजानेवाला।
तेरी बोलबाला मेरा परम कृपाला तू।।२३।।

२४- तिहारी बलिहारी है

योगी विश्वद्रष्टा सत्यतत्व को सुस्रष्टा तू ही।
तू युगावतार तू नैष्ठिक ब्रह्मचारी है।।

तेरी सत्यवृष्टि दृष्टि सृष्टि ही अनेरी तेरी।
तेरी वज्र काय तू ही वज्र काछधारी है।।

तू ही गिरी गव्हर को वीर केसरी महान।
तू ही अवधूत वनवासी को बिहारी है।।

देश को विधायक तू विश्व को विनायक तू।
सत्यता सहायक तिहारी बलिहारी है।।२४।।

२५- सरस्वती के सपूत

सत्य की कमान तेरी सत्य के ही शब्द-बाण।
तेरे नैन का निशान सत्य की उन्नति है।।

काराणी कहत एक सत्य की सम्पत्ति तेरी।
सत्य तेरा योग तू ही जनम को जति है।।

नेता ऊर्ध्वरेता रोका रति के पति को तूने।
शस्त्र तेरा संयम अमंद अति मति है।।

पूर्व के अभूतपूर्व आप देवदूत सर-
स्वतीके सपूत दयानन्द सरस्वती है।।२५।।

२६- दयानन्द दयाला

ज्ञान बरसायो मेह गेह-गेह घूमी-घूमी।
मात भारत भूमि तेरे नेह तें निहाला है।।

भारत में भोर भयो दिनकर दौर भयो।
भागे भैरों-भूत ऊलूकों का मुंह काला है।।

काराणी कहत हिन्द-लाला मतवाला तूने।
पाखण्डों का जाला कोट किल्ला तोड़ डाला है।।

सत्य को संभाला तूने असत्य को ढाला तूने।
प्रेम धर्म पाला दयानन्द तू दयाला है।।२६।।

२७- निराकार ईश्वर से जीवन को जोड़ा है

सोती आर्यजाति को झंझोड के जगानेवाले।
प्रतिमा के पाषाण-पूजा से मुख मोड़ा है।।

भूत-प्रेत तन्त्र गण्डा-ताविजों को तोड़ा तूने।
जंत्र-मन्त्र ज्योतिष का भंडा तूने फोडा है।।

देखा है पाखण्ड वहां दौड़े हैं अचूक आप।
पोल-ढोल छुपे छल-छद्म को न छोड़ा है।।

लाखों देवी-देवता के फंद को छुड़ाय एक।
निराकार ईश्वर से जीवन को जोड़ा है।।२७।।

२८- आर्यत्व उद्धारक

पूर्व को प्रकाश कैधों पृथ्वी पे प्रकट भयो।
कैधों उत्तरायण को तेज दीप आयो है।।

असत्य के सागर के सर्व-गर्व-गंजन को।
कैधों रघुनाथ आप चाप को चढ़ायो है।।

सारी वनराजी नए रंग में नचायबे को।
कैधों ऋतुराज आज छिति पे छवायो है।।

काराणी कहत नवयुग के जगायबे को।
कैधों आर्यत्व को पुनरुद्धारक आयो है।।२८।।

२९- झंडाधारी

आया झंडाधारी वेद धर्म का उडाया झंडा।
मंत्र ओम्कार तें जगत को जगायो है।।

पाप-ताप, क्लेश-द्वेष, जेर-जुल्म जारिबे को।
कहा महिमण्डल पे महानल आयो है।।

कृण्वन्तो विश्वमार्यम् एक वेद-मन्त्र हु ते।
काराणी कहत सारे हिन्द को हिलायो है।।

धर्म धारिबे को आर्यावर्त के उद्धारिबे को।
डूबतों के तारिबे को दयानन्द आयो है।।२९।।

३०- नरसिंह अवतार

भारत में भया अनाचार का अपार भार।
हुआ हाहाकार हर्नांकस के हुंकार सा।।

धर्म भयो लोप महापाप को प्रकोप भयो।
उठा चित्कार प्रह्लाद के पोकार सा।।

काराणी कहत चडी आंधी अधर्म की जब।
घेरा चारों और अंधाधुंध अंधकार सा।।

काले कलिकाल के कराल लाल खम्भ से दि-
आया दयानन्द नरसिंह अवतार सा।।३०।।

३१- पाखण्ड खण्डन पर

अनल पे नीर जैसो नीर पे समीर जैसो।
जैसो धन तिमिर पे तरणी को तीर है।।

जैसो कंसराज पर चक्रधर कृष्णचन्द्र।
जैसो नक्षत्रियमें परसराम वीर है।।

काराणी कहत जैसे पहाड पे वज्रपात।
जैसो राज रावण पे राम रणधीर है।।

जैसो मृगझुण्ड पे महान मृगराज वैसो।
पाखण्ड के पन्थ पर दयानन्द वीर है।।३१।।

३२- तेज का मिनारा

कैते महिपतियों को आर्यत्व की दीनी आन।
कैते कैते मानियों के मान को उतारा है।।

तेरी अप्रतिम तपश्चर्या की तेजसधारा।
तेजस्वी चारित्र्यजैसा शुक्र का सितारा है।।

काराणी कहत पाखण्डों के पारावार बीच।
बिरद का बेडा तूने पार कर डारा है।।

भूले-भटके को सत्पन्थ दिखलानेवाला।
वीर दयानन्द तू ही तेज का मिनारा है।।३२।।

३३- निस्पृहता

उदेपुर राजन सज्जनसिंह ने एक समय।
स्वामीजी को बात एक बताई ईनाम की।।

महर्षि न कीजे मूर्तिपूजा का विरोध अब।
लीजीए जागीर आप एकलिंगधाम की।।

सारे धर्म-धामहु के बनादूं महन्त बड़े।
और भी दिलाऊं जायदाद लाख दाम की।।

महर्षि कहत वेद-धर्म के विरुद्ध यह।
तुच्छ जायदाद न हमारे कुछ काम की।।३३।।

३४- पाखण्ड खण्डनी पताका

हरिद्वार धाम कुम्भमेले के झमेले बीच।
भारत की जनता अपार जब आई है।।

मोटे-मोटे साधू-संत संन्यासी महन्त आए।
डेरा-तम्बू डारे केती छावनी छवाई है।।

सभा-समूहों में सप्तसर पर महर्षि ने।
वेद-धर्मोपदेश की झडी बरसाई है।।

हिम्मत के हीर सत्यवीर दयानन्द जी ने।
पाखण्ड-खण्डनी पताका तहां चड़ाई है।।३४।।

३५- सहिष्णुता

सत्य को प्रकाश न सोहात अन्ध ऊलूक को।
असत्य-निवास अन्धकार वास जाको है।।

सत्यनिष्ठ स्वामीजी ने केते-केते पाए कष्ट।
ठार मारने को कोई ताडने को ताको है।।

बरसाया कीचड़ पत्थर का काहु ने मेह।
उड़े हैं उपान कहीं असि को कड़ाको है।।

ठेर-ठेर सहिष्णुता धारत धरणी सम।
धन्य दयानन्द धन्य तेरी अहिंसा को है।।३५।।

३६- शास्त्रार्थ विजय

अनूप शहरवाले शास्त्री हीरावल्लभ ने।
शास्त्रार्थ विवाद काज सभा को बुलाई है।।

सभा बीच रखी प्रतिमा को स्वयं महर्षि के।
हस्त से धराऊं भोग वही बात ठाई है।।

चले शास्त्रार्थ स्वामीजी के शब्दबाण चले।
वेद-धर्म की वहीं विजय दिखलाई है।।

पलटे पंडित वही आप आर्यवीर हुए।
वही मूरति को जाके गंगा में बहाई है।।३६।।

३७- जेते नभ तारे हैं

दलित तारक सारे समाज के सुधारक।
आर्य नारी उद्धारक अनाथ उबारे हैं।।

थापे आर्य शिक्षण के केते-केते गुरुकुल।
जाति-पाती, जड़ रूढी-बंधन बिदारे हैं।।

स्वराज स्वदेशी प्रेमी परं देशभक्त तूने।
सर्वांग समाज के प्रदीप्त कर डारे हैं।।

काराणी कहत गुण गिनती करी न जात।
एते उपकार तेरे जेते नभ-तारे हैं।।३७।।

३८- दयानिधि

जोधपुरपति को सुबोध दयानन्द देत।
राज गणिका का दिल द्वेष ने जला दिया।।

महर्षि के पाचक को कीनो वश कामिनी ने।
हलाहल विष पयपान में मिला दिया।।

वो ही पापी पातकी को स्वामीजी ने ही स्वयं।
चुपके बिदा किया दाम भी दिला दिया।।

काराणी कहत दयानिधि दयानन्द जी ने।
खुद खूनी जनूनी जालिम को जिला दिया।।३८।।

३९- अन्तिम इच्छा

आए अजमेर वहां जहर ने लिया घेर।
वैदो नारायणो हरिः ऐसो वक्त आयो है।।

अंतिम बिदाई को दीपावली अंतिम दिन।
दीपन को दिन आज शोक में समायो है।।

बीसवीं सदी के उनतालीसवें वर्ष आज।
दीपमालीका में देश-दीपक बुझायो है।।

ज्योति वक्त भारत में ज्योति के जगाए दीप।
परम ज्योति में आत्म-ज्योति को मिलायो है।।३९।।

४०- भारत के शेर

दीनानाथ की दया से आए दयानन्द देव।
दीन-हीन देश के सुवर्ण के सुमेर थे।।

वेदधर्म व्याप्त सेवा धर्म में समाप्त हुए।
आप्त हु के आप्त वे गैरों के लिए गैर थे।।

सत्य के सुमित्र आप असत्य के शत्रु आप।
पाप ताप कपट कुटिलता के कहर थे।।

दिव्य दृग-तेज मेघ-गर्जना सा सिंह नाद।
वीर दयानन्द भूमि भारत के शेर थे।।४०।।

४१- रखी आन हिन्दवान की

हाथ रखे वेद, वेद-धर्म को विख्यात रखे।
तात रखी तुमने ही ख्यात हिन्दुस्थान की।।

जात रखे जनेऊ को चोटी को कटात रखी।
बात रखी एक आर्यधर्म के उत्थान की।।

काराणी कहत धर्म लक्ष्मी को लुटात रखी।
साथ रखी शक्ति एक सत्य शब्द बान की।।

ज्ञान रखे मान रखे गौरव के गान रखे।
शान रखी रखी आन-बान हिन्दवान की।।४१।।

४२- मलय के समीर थे

भारती की भीड पाप-पीड को पिछानी धीर।
वीर दयानन्द गुन-सागर गंभीर थे।।

प्यारे वेदोंवाले सारे हिन्द के सितारे मात-
भारती के नैन-तारे न्यारे नरवीर थे।।

अभय अभ्रान्त आप आप को अमाप ताप।
आप ही अमीर आप नंगे ही फकीर थे।।

शीतल शिशिर में बसंत बिलसाय दीनो।
दयानन्द महर्षि मलय के समीर थे।।४२।।

४३- ग्रन्थ प्रकाशन

आर्याभिविनय विज्ञापन व्यवहारभानु।
भ्रान्ति निवारण संध्या वेदांग प्रकाश है।।

पंच महायज्ञविधि सत्य असत्य विवेक।
अष्टाध्यायी स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश है।।

गोकरुणानिधि भ्रमोच्छेदन संस्कारविधि।
प्रतिमा-पूजन यजु ऋग्वेदादि भाष्य है।।

आर्योद्देश्य-रत्नमाला पाखण्ड खण्डन आदि।
महर्षि को महाग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है।।४३।।

४४- सत्यार्थ प्रकाश

कैधों अवनि को एक अजर-अमर ग्रन्थ।
कैधों आर्य समाज को आतम उल्लास है।।

कैधों अनमोल महा रत्नों को रत्नाकर की।
वेद को विशेष सत्त्व तत्त्व को प्रकाश है।।

कैधों आर्यवीरों ने पायो है प्रेमपुंज आज।
काराणी कहत कैधों अविद्या विनाश है।।

सत्य की सुवास वेद विद्या को विलास कैधों।
स्वराज रहस्य वो ही सत्यार्थ प्रकाश है।।४४।।

४५- शेर बब्बर था

भारत के नरवर जगत के गुरुवर।
पुरुष-प्रवर तू प्रखर वीरवर था।।

नेता नर नाहर तू अडग गिरिवर तू।
सदा सुखकर तू शीतल सरवर था।।

काराणी कहत गरजत महासागर सा।
असत तिमिर पर उग्र दिनकर था।।

नीडर निरभिमानी निरअभिलाषी नर।
शौर्य वीर्य साहस में शेरे बब्बर था।।४५।।

४६- बल दल

दया-बल, मया-बल विमल विनोद बल।
वेद शास्त्र बल का सबल शस्त्र बल था।।

विद्या बल वाणी बल युक्ति प्रयुक्ति का बल।
पूर्ण प्रेम बल का अमल परिमल था।।

तन बल, मन बल, बाहु बल बुद्धि बल।
ब्रह्मचर्य बल पे बलिष्ट आत्मबल था।।

असत अरिदल के बादल बिहारिबे को।
दयानन्द तेरा बल-दल ये प्रबल था।।४६।।

४७- जागे

काल की कमान जागे पत्थर में प्राण जागे।
हिन्द के जवान जागे तेरे शब्दबाण से।।

भारत की शान जागे नेह के निधान जागे।
वेद धर्मध्यान जागे वेद के विधान ते।।

महामतिमान आर्य जाति की जबान जागे।
प्राण हु के प्राण जागे तेरे प्रातः गान ते।।

प्रेम की पिछान जागे आत्म अभिमान जागे।
देव दयानन्द तेरे वेद ज्ञान दान ते।।४७।।

४८- शहीदों के सिरमौर

आर्यत्व की इमारत केते-केते शहीदों के।
खून पे खड़ी है ऐसे प्रेम-धर्म-पूर थे।।

वीर लेखराम धर्मवीर राजपाल आदि।
संन्यासी शहीद श्रद्धानन्द मशहूर थे।।

हुए बलिदान हिन्द गौरव गोविन्द गुरु।
केसरी कराल वीर बंदा बहादूर थे।।

काराणी कहत सत शहीदों के सिरमौर।
ऋषि दयानन्द सब शूरन में शूर थे।।४८।।

४९- लेटा तेरी गोदी बीच बेटा दयानन्द सा

टंकारे का बंका तेरे मन्त्रों ने बजाया डंका।
पाखण्डों की लंका जलाने में हनुमन्त सा।।

क्रान्तिकारी कर्मयोगी क्रान्तदर्शी कर्मवीर।
धर्म के ज्योतिर्धर ज्ञान में गयंद सा।।

परम समर्थ सत्य तत्त्व प्रतिपादन में।
असत्य उत्थापन में अधीर अमंद सा।।

धन्न मात भारती हजार बार धन्न-धन्न।
लेटा तेरी गोदी बीच बेटा दयानन्द सा।।४९।।

५०- तू न होता तो

धर्म-कर्म-ध्याता नवयुग निर्माता तू ही।
भव्यतम भारत के भाग्य का विधाता तू।।

तेज तेरा ताता दुःख दैत्य अकुलाता जाता।
शान्ता सुखदाता माता भारती को भाता तू।।

वेदों को दबाता छुपे होने में छुपाता विप्र।
व्हां से खोज लाता वो ही वेद गुन ज्ञाता तू।।

आर्यधर्म त्राता आर्यत्व को चमकाता कौन।
काराणी कहत जो न होता वेद-दाता तू।।५०।।

५१- जयकार

भारती के नन्द दया आनन्द के कन्द दया।
नन्द ने उड़ाई नीन्द हिन्द आर्यवृन्द की।।

तीव्र तपको प्रताप शान्ति सौम्यता अमाप।
आदित्य के ताप आप ज्योति शीत चन्द की।।

काराणी कहत दयानन्द की दया ते आई।
हिन्द की आजादी गई बात छाल-छन्द की।।

पारावार प्यार के पोकारन तें बार-बार।
बोलो जयकार युगदेव दयानन्द की।।५१।।

५२- बावनी

आर्य जाति के जहाज महाऋषिराज आज।
बावनी समाप्त हुई मेरे मन-भावनी।।

महर्षि के भक्तवर आर्यवीर वल्लभ की।
प्रेममयी प्रेरणा सी सदा सुख पावनी।।

कवि अनुभवी न पण्डित न प्रवीण यह।
अंतर की अंजलि श्रद्धांजलि सोहावनी।।

काराणी की वाणी कहां सागर का पानी कहां।
सिंधु दयानन्द एक बिन्दु मेरी बावनी।।५२।।

जब लग सूरज सोम है, जब लग आर्य समाज।
तबलग अविचल आप हैं दयानन्द गुरुराज।।

दीपत दिन दीपावलि दो हजार दश साल।
पूर्ण प्रकट भई बावनी बावन दीपक माल।।

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