मुक्ति-सोपान
प्रथम खण्ड
ईशोपनिषद् के आधार पर अध्यात्म दोहावली
।। दोहा ।।
ईश्वर का आवास है, यह समग्र संसार । त्याग पूर्वक भोग नर, मत कर लोभ अपार ।।१।।
इस समस्त संसार के कण-कण में प्रभु व्याप्त । – लोभ न कर इस विश्व का, त्याग भाव रख आप्त ॥२॥
कर्मों को करता हुआ, इच्छा रख शत वर्ष । इससे भिन्न न मार्ग है, रह अलेप, कर हर्ष ॥३॥
सौ वर्षों तक कर्म की, जिजीविषा रख गात । – लिप्त न हों पर कर्म में, यही मार्ग है भ्रात ॥४।।
वे निश्चय ही जायेगे, अन्धकार के लोक । आत्म हनन जो जन करें, पावें दारुण शोक ॥५॥
आत्मा के विपरीत चल, पाओगे बहु शोक । – अन्ध तमस में जाओगे, मरकर, गहरे लोक ॥६॥
ब्रह्म अचल है, एकरस मन, से भी गतिमान । सदा इन्द्रियो से परे, सबमें एक समान ।।७।।
जग को धारण कर रहा, पर है सबसे भिन्न । मनुज पकड़ से वह परे, उससे सब परिछन ।।८।।
वही भ्रमाता विश्व को, स्वयं न पर गतिमान । है सबके अति निकट भी, बाहर भी विभुवान ।।९।।
गति देता है विश्व को, पर है स्थिर आप । बाहर-भीतर व्याप्त है, वह अनन्त-निष्पाप ।।१०।।
सब संसृति उसमें बसे, वह संसृति में व्याप्त । जो जाने इस तत्व को, वही पुरुष है आप्त ।।११।।
वन्दनीय वह नर सदा, लखे विश्व-प्रभु मांहि । वह कण-कण में रम रहा, कहाँ खोजने जाँहि ॥१२॥
ज्ञानी जन संसार को समझे उसका रूप । शोक मोह से दूर रह, माने उसको भूप ॥१३॥
जो जाने इस विश्व को, ईश्वर का आकार । उन्हें न व्यापे शोक-भय, माया का व्यापार ।।१४।।
सम्भव कर्ता ईश है, निर्विकार-अशरीर । शुद्ध-पवित्र, अपाप वह, अज-अनादि है धीर ॥१५॥
नस-नाड़ी से रहित वह, है बन्धन से दूर । कविर्मनीषी ब्रह्म है, विमल-सुखद अनुपूर ॥१६॥
याथातथ्य विधान से, कर्मों का फल देय । हो कृतार्थ वह जीव, जो उसका आश्रय लेय ।।१७।।
करे उपेक्षा ज्ञान की, कर्म करे बन अंध । अन्धकार को प्राप्त हो, भोगें ईश प्रबन्ध ।।१८।।
करे उपेक्षा कर्म की, धारे केवल ज्ञान । और तमस को प्राप्त कर, भोगे दुःख महान ॥१९॥
ज्ञान-कर्म का मेलकर, जो करता है कर्म। तरे मृत्यु सरिता वहीं, भोगे मुक्ति स्वधर्म ॥२०॥
मिले अमरता ज्ञान से, मृत्यु तरे कर कर्म । दोनों जोड़े एक संग, जान जगत का मर्म ।। २१ ।।
ज्ञान-कर्म का फल पृथक-पृथक कहें मति धीर । पृथक-पृथक माने सदा, सुखमय रहे शरीर ॥ २२॥
प्रथम अविद्या कर्म है, विद्या ईश्वर-ज्ञान । भिन्न-भिन्न फल उभय के, कहते हैं विद्वान् ॥२३॥
करे उपेक्षा जीव की, पूजे मात्र शरीर । अन्ध लोक को प्राप्त हो, भोगे भीषण पीर ॥२४॥
उससे भी भीषण दुखी, रहते हैं वे लोग । त्याग ब्रह्म को मात्र जो, भोगे तन हित भोग ॥२५॥
स्थूल देह से भिन्न है, कारण सूक्ष्म शरीर । फल भी तीनो का अलग, कहते ज्ञानी-धीर ॥ २६ ॥
तीनों को ही जान कर, कर्म करे अविरक्त । पर विरक्त रह कर्म से, रहे ईश-आसक्त ॥२७॥
सृजन और संहार का, रहे सर्वथा ध्यान । कर्म पुनीत करे सदा, पाये मोक्ष महान ।। २८ ।।।
इस काया से पृथक है, सूक्ष्म ब्रह्म अनिकाय । वह अन्तर में रम रहा, उस हित करो उपाय ॥ २९
प्रकृति-जीव को अलग रख, कर दोनों हित कर्म । इससे इस भव को तरे, उससे पाये ब्रह्म । ॥३०॥
चकाचौंध में विश्व की, छिपा सत्य का चमकीला ढकना हटा, देख सत्य औ मर्म । धर्म ॥३१॥
जग के मोहक पात्र में, ढका सत्य अभिराम । हे प्रभु ! यह ढकना हटा, दिखा धर्म निष्काम ॥३२॥
सर्व-जगत आधार हो ! अद्वितीय छविमान । दुखप्रद बन्धन खोल कर, प्राप्त करा कल्याण ॥३३॥
मङ्गलमय तव रूप है, उसे दिखा छविधाम । मुझको मेरा भान हो, खोल नयन अभिराम ।।३४।।
तिमिर-ताप का नाश कर, दे दो रम्य प्रकाश । अपने को मैं जान लूँ, कटे मोह का पाश ॥ ३५॥
तू अजरामृत जीव है, नाशवान यह देह । अतः सुमिर उस ईश को, करले उससे नेह ॥ ३६॥
अक्षर ओ३म् जपो सदा, याद रखो कृत कर्म । अविनाशी यह जीव है, मरण देह का धर्म ॥३७॥८
हे प्रभु अक्षत आप हो, हो अविनश्वर ईश । जीवनप्रद प्रभु जगत के, तुम अलक्ष अवनीश ।।३८॥
हे प्रकाश के पुञ्ज प्रभु, सुपथ ले चलो नाथ ! । पाप कर्म से दूर रख, गहो हमारा हाथ ।।३९।।
हमको सदा बचाइये, कुटिल कर्म से ईश । नमस्कार बहु विधि करूँ, इत्ती हेतु जगदीश ॥४०॥
हे तेजस्वी तेज दो, दो ऐश्वर्य पुनीत । सुपथ चलूँ, सुखमय रहूँ, रहे न मन भयभीत ।।४१।।
।। इति ईशोपनिषद् पर आधारित अध्यात्म दोहावली ।। ।। इति मुक्ति-सोपान प्रथम खण्ड ।।