घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे
- बातों की भीड़
सम्प्रदाय का प्रारम्भ एक संगठन से होता है। ये संगठन जब बड़े हो जाते है…या पुराने पड़ जाते हैं तब उनमें एक बोदापन आ जाता है। “संगठन जब पूर्णतः या अंशतः महन्त वाद के रूप में सीमित हो जाता है तब यह बोदा पन ही काम करता है और मानव जीवन की कोई भी गति अविरुद्ध हो जाती है”आज सभी सम्प्रदाय बोदेपन की स्थिति में पहुंच गए हैं इनमें से धर्म की स्फूर्तिदायक भावनाएं शनैःशनैः कूच कर गई हैं। मठाधीश शंकराचार्यों ने आदि शंकराचार्य के अद्धैत सिद्धान्त को जहां का तहां रोक रखा है.. पोप पालों ने बाइबिल को घेर रखा है कि उसमें कोई संशोधन न हो सके.. मौलवी कुरान को बदलने के खिलाफ हैं..।
धर्म सिद्धान्त पोथी पण्डितों की जड़ता से टकरा-टकरा घिस गए हैं। नई दृष्टि के नशे वाले लोग जब इन पोथी पण्डितों में धर्म की सांस भरते हैं, तो ये पोथी पण्डित उन पर गन्दगी तथा कीचड़ की उलटियां करते हैं। अरस्तु पर आरोप लगा उसे एथेन्स से निकाल देते है, कांट को स्वाभाविक धर्म लिखने पर चेतावनी देते है।
“टूट रहा देश टूटती जाती आस्थाएं।
तूफानों में अन्धे नाविक खेते नौकाएं।
बातों की बस भीड़ कि सारी जगह घिर गई है।।”
दिन प्रतिदिन मानव धर्म ढ़कोसलों के कारण अध्यात्म से भी दूर होता चला जा रहा है। अध्यात्म के प्रति इन्सान की बची-खुची आस्थाएं भी टूट रहीं हैं। भाषण, प्रवचन, भजन, कीर्तन सब का शोर बहुत है। इसमें आदमी कहीं भी सुनाई नहीं देता। मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों की सारी की सारी धरती पर कर्मों का नहीं बातों का कब्जा है। तर्क के तूफानों का मुकाबला अन्धे मठाधीश चौधरी आदि क्यों कर कर सकेंगे? फूटी आंखोंवाले ये नाविक बन्धी हुई नाव को खे-खेकर नए घाट ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। और नाव रूढ़ीयों, रस्मों, परम्पराओं के ही घाट पर खड़ी है।
सम्प्रदायों की घुमावदार सीढ़ीयां आदमी चढ़ते-चढ़ते थककर चूर हो जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि आखिर में कहां पहुंचना है? जब मंजिल के बहुत पास पहुंचता है तो…
घुमावदार सीढ़ीयां चढ़ता रहा
कभी सीढ़ीयां ऊपर जाती हैं कभी नीचे
और जब सीढ़ीयां खत्म हुई तो पता चला
वहीं पहुंचे जहां से चले थे।
यह नियति बड़ी भयानक है, बड़ी उबाऊ है, बड़ी कीचड़ी है। समझ नहीं आता कि घर बाजार काम-काज में अच्छा-भला आदमी; आंखवाला, समझवाला आदमी इन सम्प्रदाय भवनों में प्रवेश करते ही अन्धा क्यों हो जाता है? “आत्महना लोगों के लिए असूर्य नाम का एक अन्धा लोक है।” वह अन्धा लोक ये मन्दिर, मस्जिद, गिरजे आदि ही तो हैं जहां आदमी भटकता चला जाता है लेकिन अपने को भटकता नहीं समझता है।
दूसरों के चरित्र के बल पर अपने शब्दों की कीमत बढ़ाने का घिनौना एवं नीच प्रयास ही पण्डित, मौलवी, पादरी होना है। कितने पण्डित, कितने मौलवी, कितने पादरी ऐसे हैं जो अपने शब्दों को अपने चरित्र की कीमत, अपने चरित्र की सबलता दे सकते हों? एक मठाधीश शंकराचार्य ‘सब कुछ ब्रह्म है’ मान्यता का प्रचार करता हुआ, अपने तन को पवित्र मानता हुआ आदि शंकराचार्य की खड़ाऊं पर लोगों को पुष्पहार चढ़ाने को कहता है। इस शंकराचार्य का त्रिविध अज्ञान ब्रह्म के बारे में, उसके अपने तन के बारे में, खड़ाऊं के बारे में; लाऊड-स्पीकर पर चीखता है और अपार भीड़ वाह-वाह करती है। ज्ञान की इस पीड़ा का, ज्ञान के इस दाह का इलाज कौन करेगा? प्रमुख होने की दौड़ में ‘सम्प्रदाय प्रमुख’ प्रामाणिकता के पथ से भटकते जा रहे हैं। काश! ये अन्ध-प्रज्ञ समझ सकते कि प्रमुख होने की तुलना में प्रमाणित होना कहीं बेहतर है।
(~क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)