घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे
5.”छांव जो धूप है”
मानव मात्र के लिए छांव देने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं ये सम्प्रदाय। ये बातें केवल थोथी बातें हैं। हर शहर में किसी इस कोने में, कहीं उस कोने में ऐसी बस्तियां होती हैं जो शहरी जगमग से दूर अन्धेरा जिए जाती हैं। यहां अपाहिज, लूले, लंगड़े, अन्धे, कोढ़ी आदि अपने से कम ऊंचाई की टूटी-फूटी झोपड़ियों में रहते हैं। मन्दिर, मसजिद, गिरजे में पलते पादरियों, पण्डितों मौलवियों में से कोई कभी नहीं पहुंचता है इन बस्तियों में। महाकरुणा, अहिंसा, दया, प्रेम पर बड़े-बड़े भाषण जगमगाते साफ सुथरे टाऊन हालों, सम्प्रदायभवनों में होते हैं। भाषणों की महाकरुणा, अहिंसा, दया, प्रेम सभी उन्हीं भव्य भवनों में तड़प-तड़प कर बिना सांस लिए मर जाते हैं। कभी कोई-कोई जगद्गुरु शंकराचार्य, महानबी, पोलपाल, आंसुओं से गीली गलीच इन बास्तियों में झाकने भी नहीं आते। ये लघु बस्तियां अश्रुतर इन धर्म के ठेकदारों को कुछ नहीं दे सकती हैं। जगमगाती बस्तियां इन्हें धन देती हैं, मठ देती है, मन्दिर देती हैं, सोने चांदी के भगवान दिया करती हैं। बड़ी-बड़ी, बहुत थोथी बातें मानवता की हुआ करती हैं सम्प्रदायों में।
यहां दरख्तों के साए में धूप लगती है,
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए।
जब समाज में किसी नए विचार का प्रादुर्भाव होता है तो उसका जनक कोई समूह या संगठन नहीं होता, व्यक्ति ही होता है। संगठन और संस्था बाद में बनते हैंव्यक्ति के नव विचारों पर आधारित ये ही संस्थाएं कालांतर में व्यक्ति को छोटा कर देने का कार्य करने लगती हैं। नए विचारों का भयानक विरोध करने लगती हैं। विवेकवादी पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा को यहूदी पुरोहित मण्डल ने 24 वर्ष की उम्र में यहूदी जाति से निकाल दिया। जाति-बहिष्कार के अवसर पर मण्डलाधीशों के निर्णय के अन्तिम शब्द थे-
“इस आदेश के द्वारा सब यहूदियों को सचेत किया जाता है कि कोई भी उसके साथ न बोले, न उससे पत्र व्यवहार करे, कोई भी उसकी सहायता न करे, न कोई उसके साथ एक मकान में रहे, कोई भी चार हाथों से कम उसके निकट न आए, और कोई भी उसके किसी लेख को, जिसे उसने लिखवाया हो या आप लिखा हो, न पढ़े।”
यहूदी जाति आप ही बहिष्कृत थी- स्पिनोजा धर्म कठमुल्लों के द्वारा उससे भी बहिष्कृत कर दिया गया। सम्प्रदाय का इतना घिनौना स्वरूप कई बार इतिहास में दुहर चुका है। इस घिनौने स्वरूप को धर्म से अलग करना ही होगा और यदि इसे अलग करने को कोई सम्प्रदाय तैयार नहीं है तो उन सम्प्रदायों को ही खत्म करना होगा।
“मनुष्य को आप सीधा खड़ा होना चाहिए, न कि यह कि दूसरे उसे सहारा देकर सीधा खड़ा रखें।”- मार्क्स आरेलियस के इस कथन की सच्चाई को ईमानदारी पूर्वक स्वीकारना ही होगा। दूसरों द्वारा प्रदत्त हर सहारा मनुष्य के लिए छोटा ही रहता है। साम्प्रदाई भावना की जड़ अपने पैरों पर खड़ा न हो पाना है। जो व्यक्ति बौना है वह ऊंचाईयों से बहुत जल्दी प्रभावित होता है। वह ऊंचाईयों के गीत गाता है प्रशस्ति स्वरों में। यदि उसके साथ कुछ और बौने मिल गए तो सम्प्रदाय का गठन हो जाता है। हाब्स कहता है “छोटे-छोटे लोग ही ‘महाकाय’ का अह्नान करते हैं।” यदि सम्प्रदाय तोड़ने हैं तो मानव को अपना बौनापन छोड़ना होगा, ऊंचाईयां धारण करनी होंगी।
उस दुकान की स्थिति क्या होगी जिसमें एक ही नाप के जूते बिकते हों? बच्चों, बड़ों, बूढ़ों, औरतों, मर्दों सबको एक ही नाप के जूते नहीं पहनाए जा सकते। एक ही नाप के जूते या टोपी या बर्तन या वस्त्र की दुकानें नहीं चल सकती यह समान्य मनुष्य भी जानता है। लेकिन सम्प्रदायों की दुकानें सामान्य दूकानों से भी गई बीती हैं और साम्प्रदायी व्यक्ति सामान्य व्यक्ति से भी निम्न है। ये दुकानें एक ही नाप में सबको फिट करने की कोशिश में कुछ मस्तिकों को छोटा कुछ मस्तिकों को बड़ा करने का असम्भव कार्य करने का प्रयास कर रही हैं। तंग मिस-फिट विचार कपड़ों में जकड़े ये सम्प्रदाई कितने भद्दे दिखते हैं यह इनके अतिरिक्त हर तटस्थ व्यक्ति जानता है। क्या इस भद्देपन को खत्म नहीं किया जा सकता? क्या इन्सान के लिए इतना मूर्ख होना आवश्यक है? नहीं! इन्सान के लिए मूर्ख होना, भद्दा होना आवश्यक नहीं है। इन्सान में श्रेष्ठता के गुण हैं। धूर्त बौनों का आस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। ये दुकानें अब कुछ अन्य मापों की वस्तुएं भी रखने लगी हैं। इन्हें यदि चलना है तो कल पूरी तरह बदलना ही होगा।
धर्म क्षेत्र में हमनें पूर्ण विचार करने की क्षमता खो दी है। पेट्रिक का कथन है कि “पूर्ण विचार करने की कला का नाम दर्शन है।” दर्शन का आधार जब खो जाता है तभी धर्म सम्प्रदाय बन जाता है। इसको सूत्र रूप में इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं।
शाश्वत धर्म – दर्शन = सम्प्रदाय।
पूर्णता एक होती है, अपूर्णाताएं अनेक। अपूर्ण धर्म अनेक हैं, अपूर्ण धर्म ही सम्प्रदाय है। सम्प्रदाय छोटे-छोटे से घेरे हैं। इन घेरों को घेरते जाना इनसे बड़ा हो जाना है। घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे। अनुभूति, मानस, तथा कर्म की सम्पूर्णता से सना जीवन ही सच्चा अध्यात्म है। तीनों पहेलुओं में एक भी पहेलू का त्याग चाहे वह आंशीक ही क्यों न हो व्यक्ति को अधूरा बना देता है। अधूरे व्यक्ति संकीर्ण दीवारों के गिरजे, मन्दिर बनाते हैं। पूरे व्यक्ति दीवारें तोड़ते हैं। व्यापक अर्थों में सोचते हैं। मानव मात्र के लिए।
“ऊपर आकाश और नीचे धरती माता यही सबसे बड़ा गिरजाघर है।”
धर्म के नाम पर समाज में फैले आडंबरों पर कार्ल मार्क्स प्रहार करते लिखता है “धर्म तंग किए गए प्राणियों का क्रन्दन है, निष्ठुर विश्व का हृदय है, नितान्त अध्यात्महीन परिस्थितियों की आत्मा है, यह गरीबों की अफीम है। ईश्वर का विचार अधम सभ्यता की आधारशिला है।” सम्प्रदाय को यदि धर्म का पर्यायवाची शब्द मान लिया जाए तो मार्क्स के कथन में कुछ भी असत्य नहीं है। धर्म का अर्थ है अर्ध से एक होना या अपूर्ण से पूर्ण होना। जबकि सम्प्रदाय का अर्थ है अपूर्णता की एक सीमा पर रुक जाना, अपूर्णता पर रुक कर भी अपने को पूर्ण समझने की मानसिक स्थिति ही हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि होना है। इसी स्थिति को साम्यवाद बड़े कठोर शब्दों में झुठलता है। साम्यवाद “एक सबके लिए सब एक के लिए” के रूप में उच्च अध्यात्म की प्रस्थापना भी करता है।
सीमितताओं के अन्धेरे ने आंखों में पड़कर असीमितता के प्रकाश को जब ढंक लिया तब एक कुएं के मेंढक का जन्म हुआ। मेंढक ने हिन्दुत्व का अन्धेरा धारण किया हिन्दु बना, मुसलमानियत का अन्धेरा ओढ़ा मुसलमान बना, ईसाइयत का अन्धेरा ओढ़ा ईसाई बना। जात भले ही अलग अलग हो, नाम अलग-अलग हो पर प्रकार में सभी मेंढक हैं। कुएं भले ही अलग-अलग हो। इन मेंढकों के अपने-अपने टर्राहटी शोर का फैलाव बढ़ता ही चला जा रहा है। नए देवता, नए भगवान पैदा हो रहे हैं जो और छोटे कुओं के मेंढक गढ़ रहे हैं। कितना कितना छोटा हो सकता है आदमी? कितना कितना गंदला हो सकता है आदमी? इसकी निम्नता की आखीर सीमा क्या है? ये टके टके के भगवान, मूर्तियों से झड़ती राख, संतोषी मां, भोग के लिए हारमोन्स सा उपयोग में लाया जाने वाला योग। आने वाली पीढ़ी के लिए हम क्या छोड़ जाएंगे? अपनी अज्ञानता की घिनौनी तस्वीर? कहीं हम इतने न गिर जाएं कि आने वाली पीढ़ी हमें मानव कहने के काबिल भी न समझे। धर्म की पुरानी दुकानों में कुछ सुधार हो चला था, पुरोहिती आतंक की भीषणता कुछ कम हुई थी, कुछ आशा बन्ध चली थी भविष्य के लिए; पर अज्ञान के फैलते घिनौने तरीकों से वह आशा धूमिल हो चली है। “पोथी-पण्डितों” से भी गए गुजरे लोग आज के भगवानों को पूज रहे हैं, योग को भोग का यथार्थ समझ रहे हैं। उनकी बुद्धि मूर्तियों से झड़ती तथाकथित राख फांक रही है और आज के भगवानों ने अपना आज इन अन्ध भक्तों के कारण भौतिक समृद्धि से इतना भर लिया है कि उसके मद में वे अनाप-शनाप बक रहे हैं। अनाप-शनाप वे छप रहे हैं। कल फैल जाने वाले घनघोर अन्धेरे से ये भगवान, ये योगी, ये बाबा लोग घोर तटस्थ हैं। ये लोग “नष्टलोग” हैं।
“हमारी संस्कृत भाषा में नष्ट मनुष्य दुष्ट मनुष्य से बदतर माना जाता है। दुष्ट वह है, जिसकी दुष्टता का निराकरण किया जा सकता है। जो सुष्ट बन सकता है। लेकिन नष्ट वह कहलाता है जो खो गया है, जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं रह गया है। 18 नष्ट योगी, नष्ट भगवान, नष्ट बाबाओं की हमें उतनी चिन्ता नहीं है। पर इनके नष्टतर, नष्टतम भक्तों की स्थिति देख मानव भविष्य के सपने में कई-कई कांटे चुभ जाते हैं।
ये वाद, ये सम्प्रदाय क्रान्ति की उन्मुक्ति की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं; पर कालांतर में अपने-अपने झण्डे बचाने के लिए सिकुड़ जाते हैं, सिमट जाते हैं। एक वादी यदि मानवता का झण्डा उठा ले, मानवता की तस्वीर के आगे अगरबत्ती धूप जलाना शुरु कर दे, उस पर फूल चढ़ाता रहे, तो एक दिन इतना सिकुड़ जाएगा कि मानवता के झण्डे की रक्षा के लिए दानव हो जाएगा। जब समझ का सूरज डूब जाता है, मानववाद के झण्डे तले खेमे गाड़ लेता है।
क्रांतिकारी ने कहा- “हमें उत्पादक-परिश्रम की प्रतिष्ठा कायम करनी है।” उसने अपने झण्डे पर हंसिए हथौड़े का निशान रखा। लेकिन हंसिया हथौड़ा तलवार का मुहताज हो गया। जो हथौड़ा उत्पादन का साधन था, वह प्रहार का अस्त्र बन गया। किसी स्टालिनवादी का हथौड़ा ट्रॉटस्की का सिर फोड़ने के काम आया। हम गांधीवादी अगर गांधी का वाद बना लेंगे तो चरखे के तकुए से अहिंसा की दुहाई देकर एक दूसरे को झोंकेंगे। इसलिए बड़े विचित्र दृष्य कभी-कभी देखने में आते हैं। “अहिंसा परमो धर्मः” ये अक्षर ठोस सोने के बने हैं इसलिए उनका रक्षण एक प्रहरी हाथ में नंगी तलवार लेकर करता है। यदि हम मनुष्य को उबारना चाहते हैं, तो उसे सम्प्रदाय और धर्म की गुलामी से उबारना होगा। वाद के शिकंजो से मुक्त करना होगा। वाद सम्प्रदाय और धर्म मनुष्य के व्यक्तित्व को बुरी तरह तरोड़-मरोड़ डालते हैं। 19
इन वादों, सम्प्रदायों, घेरों के गठन, रक्षण, उद्देश्य को केवल दो पंक्तियों में अभिव्यक्त करते हैं दुष्यंत कुमार–
कैसी मशालें लेके चले तीरगी में आप?
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।
खुद की तो और बात है, महापुरुषों की रोशनी भी जिनके नाम पर ये सम्प्रदाय गढ़ते हैं सलामत नहीं रख पाते हैं ये हिन्दु, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि। दुहरा अन्धेरा फैलाने का हक किसी को नहीं दिया जा सकता, पर हिन्दु, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई होने की स्वतन्त्रता दी जाती है, क्या इसलिए कि वे आदमी न हो सके?
(~क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)