घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे
3.”सीमित कुछ असीमित सर्व”
कुरान, बाईबिल, पुराण तो छोटे छोटे घाट हैं। इन घाटों की सीढ़ीयां हैं वे उपदेश जो मन्दिर, मस्जिद आदि से प्रसारित होते हैं। इन घाटों पर ठहर जाने वाले उन लोगों से भी गए बीते हैं जो घाट-घाट घूमते हैं। घाट-घाट घूमना भी सत्य पाना नहीं है, अमर होना नहीं है। अमरता के सफर में निकले हुए यात्रिक रास्ते के किनारे कंकड़ बीनने में समय नहीं खोते हैं, घाट-घाट नहीं ठहरते हैं।
बस!
अब मैं अपनी जीर्ण नौका को घाट-घाट पर नहीं ले जाऊंगा।
लहरों पर खेलने मचलने की बेला समाप्त हो गई।
अब अमरता के अथाह सागर में लीन होना है। 9
अध्यात्म वह है नित नूतन, चिर नवीन है। पुराने घिसे जीर्ण तारों से अध्यात्म राग नहीं बज सकता। सम्प्रदाय तारों को नवीन होने से रोकते हैं। साम्प्रदाई अपने मानस तारों को सीमितता की जंग लगने देते हैं। शब्दों का दुहराव, तिहराव अध्यात्म नहीं है, धर्म नहीं है। अनुभूति को नित नया आयाम देना अध्यात्म है। सीमितता से अनन्तता की छलांग अपने को सीमितों में बान्ध कर नहीं लगाई जा सकती। दिव्य स्वर परम नूतन तार दे सकते हैं।
“सितार की पुरानी तारों को एक-एक कर के उतार दे,
उस पर नई तार चढ़ा ले।” 10
मनुष्य में प्रतिक्षण कुछ नया पैदा होता है। प्रतिक्षण कुछ पुराना मरता है। यथार्थ में कुछ का प्रतिक्षण मरना ही प्रतिक्षण कुछ के पैदा होने का कारण है। मन्दिर, मस्जिद, गिरजे में जाकर माथा टेकने वालों में कुछ सही कुछ गलत पैदा होकर रह जाता है। यह पैदा होकर बस वहीं रह जाना नए को पैदा होने से रोकता है। पैदा होकर बस वही रह जाने की दीवार दूसरे के पावों पर सर रखकर पार नहीं की जा सकती। अपने ही कन्धों पर सर संभालकर पार की जाती है। सिर की सर्वोत्तम जगह कोई चौखट, कोई द्वार, कोई मजार, कोई चरण नहीं है। वरन् अपने ही सबल पुष्ट कन्धे हैं। निर्बल कन्धेवाले अपना सर भी नहीं संभाल पाते। गलतों की ठोकरें खाते हैं। मानव “कुछ” पर रुक जाने के लिए नहीं पैदा हुआ है। “सर्व” तक पहुंचना तुम्हारा गन्तव्य है। सर्व तक पहुंचने के लिए प्रतिक्षण और नए को पैदा होने देना है। नए को मर जाने नहीं देना।
अज्ञान से ज्ञान की ओर कदम मानव न्यूनतम समयांश में रखता है। जो पल पल सावधान नहीं है उसे सत्य के दाने नहीं मिलते। सत्य का एक दाना अमाप खुशियां दे देता है। मानव गद्गद् हो उठता है, झूमझूम उठता है, उसकी आंखों में खुशि के अश्रु छलक आते हैं बरबस अवश ही।
एक अनन्त गणित शृंखला को लें… 1÷2 + 1÷4 + 1÷8 + 1÷16………..1 इसका योग क्या होगा? सामान्य कुछ सोचा उत्तर है एक से कम। एक से कितना कम? कोई स्पष्टतः नहीं बता सकता। यही अस्पष्टता इस उत्तर को असत्य सिद्ध कर रही है। अस्पष्टता सत्य नहीं होती। इसी का सामान्य असोचा उत्तर है “अनन्त”। क्या यह सत्य है? बस यहीं मैं अपने अब तक के अज्ञान पर सिहर सिहर उठा, कांप कांप उठा। सहजता अध्यात्म है, असहजता अनाध्यात्म। सहज उत्तर उपरोक्त अनन्त गणित शृंखला के योग का ‘अनन्त’ है। और यह सत्य भी है। एक पलांश में मेरा छत्तीस वर्षीय अज्ञान भस्म हो गया। मैं सत्य के आलोक में पहुंच गया। यथार्थ में शून्य और एक के मध्य एक भी स्थिति मानना मानसिक दिवालियापन है। इस दिवालिएपन की देन सबको मिली हुई है। शून्य और एक के मध्य जो अनन्त स्थितियां जो हम मानते हैं वे कई कई “यथार्थ-एकों” का योग है। एक का आधा कभी हो ही नहीं सकता। यह केवल कल्पना है या केवल व्यवहार के लिए है, सत्य नहीं है। शून्य और अस्तित्व की सीमारेखा है “यथार्थ-एक”। दोनों (शून्य और एक) यथार्थ के मध्य लेशमात्र भी अन्तर नहीं है। “यथार्थ-एक” अविभाज्य है। विभाज्य ‘एक’ एक नहीं है, एक की गलत मान्यता है। वह एक से बहुत-बहुत अधिक है। अनन्त तक विभाजनीय अनन्त है। (~क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)