वैदिक जीवन भारती
वैदिक जीवन ”सुशतम्-शतात्“ है। यह एक ऋजु पथ है। इस ऋजु पथ पर चलने में समय का भान नहीं है। शत वर्ष शत शत क्रतु को इतना बड़ा कर देते हैं कि पलांश में सिमट जाते हैं।
संस्कारों की सोलह ऋत संन्धियों द्वारा समाजीकरण उत्थान है शत वर्ष। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के सतत पुरुषार्थ हैं शतवर्ष। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास सुसमाज तथा व्यक्ति निर्माण है शत वर्ष।
वैदिक जीवन में शत वर्ष कदम हैं ऋत्विज गढ़े परान्त सफर के। शत से भी अधिक अदीन सफर है वैदिक जीवन। हर कदम बड़ा हो पूर्व से क्रमशः यही है वैदिक जीवन भारती।
मेरे स्वर्गीय पिताश्री डॉ.त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय द्वारा प्रणीत वैदिक जीवन प्रणाली के चुनिन्दा प्रत्ययों से अलंकृत इस तिथि पत्रक में आचार्य दार्शनेय जी लोकेश द्वारा रचित श्री मोहन कृति आर्ष तिथि पत्रक पाठकों को सादर समर्पित है.. ”आर्यवीर“
विवाह
अ) विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीरादि का परिमाण यथायोग्य हो जिन युवक युवति का उनका आपस में सम्भाषण कर माता-पिता अनुमति से गृहस्थ धर्म में प्रवेश विवाह है।
ब) पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके विद्या-बल को प्राप्त करना तथा सब प्रकार के शुभ गुण-कर्म-स्वभावों में जो युवक-युवती तुल्य हों जब परस्पर प्रीतियुक्त होकर, विधि अनुसार सन्तान उत्पत्ति और अपने वर्णाश्रम अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिए स्वचयन आधारित परिवार से जो सम्बन्ध होता है उसे विवाह कहते हैं।
दम्पती
दोनों युगल दम्पती भाव के निम्न लक्षण हैं- 1. एक मन यज्ञकर्ता दो। 2. स्वस्ति प्रार्थना उपासना द्वारा परमात्मा के निकट एक साथ दौड़ते। 3. ईश्वर आश्रय में ईश्वर के गुणों के अनुरूप सब कार्य करते। 4. विद्वानों के उपदेशों को विस्तार देते या बढ़ाते। 5. शोभन मति वितरित करते। 6. शुभ कर्मों का उपार्जन करते। 7. विविध प्रकार के भोग प्राप्त करते तथा बांटते। 8. विविध सुखों से परिपूर्ण होते। 9. इन सबका सार है कि दोनों अग्निहोत्र प्रिय, धर्म-रूप-समृद्धि सम्पन्न, उदार चित्त अर्थात् दानी, रोम-रोम ज्ञान से ऊर्ध्वगमन युक्त, अवियोगी, सच्चरित्र आभूषण से दैदीप्यमान सहपरिवार पूर्ण होते हैं दम्पती।
परिवार
परिवार गृहस्थाश्रम व्यवस्था है, जिसमें माता-पिता, पत्नी-पति, भाई-भाई, बहन-बहन, पुत्र-पुत्री एवं सेवक आदि सदस्य समनस्वता, सहृदयपूर्वक, एक स्नेहिल बन्धन से युक्त हुए, समवेत श्रेष्ठता का सम्पादन करते, सहयोग पूर्वक, एक अग्रणी का अनुसरण करते, उदात्त संस्कृति का निर्माण करते हैं।
गृहस्थाश्रम
गृहस्थाश्रम धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पथ पर ले जानेवाला अश्व है। यह अविराम गति है। यह प्रशिक्षित गति है। अविनामी विस्तरणशील है। कालवत सर्पणशील है। ज्योति है। तीनों आश्रमों की आधार-वृषा है। उमंग-उत्साह के प्रवाह से पूर्ण है। शिशु के आह्लाद, उछाह का केन्द्र है। वेद प्रचार केन्द्र है। परिवार सदस्यों द्वारा शुभ गमन है। रमणीयाश्रम है। श्रेष्ठ निवास है। श्रेष्ठ समर्पण है। स्वाहा है गृहस्थाश्रम।
गृहस्थाश्रम के उद्देश्य
1) परिवार जन उन्नयन, 2) समय क्षरण बचाव, 3) गृहसदस्य कल्याण, 4) अभिवृद्धिकरण अर्थात् परिवार को क्षय होने से बचाना, 5) उल्लंघन कर्ता को दण्ड, 6) सुस्वास्थ्य, 7) पर्यावरण अभिरक्षण आदि गृहस्थाश्रम के उद्देश्य हैं।
संस्कार
भूषणभूत सम्यककरण को संस्कार कहते हैं। देवत्वीकरण तथा समाजीकरण के श्रेष्ठ सांचों में मानव को ढाल कर सुसंस्कृत कर देने का नाम भूषणभूत सम्यक् कृति है। अथवा जिससे शरीर मन बुद्धि आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं तथा जिससे सन्तान योग्य होते हैं उसे संस्कार कहते हैं।
संस्कार के दोषमार्जन, हीनांगपूर्ती तथा अतिशयाधान ये तीन चरण हैं। गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त जीवन सन्धियों उम्र सन्धियों ऋतु सन्धियों पर सोलह संस्कारों का प्रावधान है। 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. चूड़ाकर्म, 9. कर्णवेध, 10. उपनयन, 11. वेदारम्भ, 12. समावर्तन, 13. विवाह, 14. वानप्रस्थ, 15. संन्यास एवं 16. अन्त्येष्टि ये सोलह संस्कार हैं। इनमें तीन गर्भावस्था सम्बन्धित, नौं ब्रह्मचर्यावस्था सम्बन्धित, क्रमशः एकेक गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास सम्बन्धित तथा अन्तिम संस्कार मरणोपरान्त शरीर पर किया जाता है।
धर्म
लौकिक, पारलौकिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा व्यक्तिगत अभ्युदय के उपयुक्त देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादि युक्त आत्मा की भूषणभूत सम्यक् नियोजित कर्मप्रणाली का नाम धर्म है।
पूर्ण जीवन को ब्रह्म गुणों के सन्दर्भ में जीना ही वैदिक धर्म है। दूसरे शब्दों में ईश्वर ने वेदों में मनुष्यों के लिए जिसके करने की आज्ञा दी है उसी का नाम धर्म है। अथवा ऐसे भी कह सकते हैं जिस का आचरण करने से इस संसार में उत्तम सुख और मोक्ष सुख की प्राप्ति होती हो उसे धर्म कहते हैं।
निम्न दस लक्षणों से युक्त धर्म हर मानव के लिए सदा परिपालनीय है- 1. एक ब्रह्म की ही उपासना तथा वेद का पढ़ना-पढ़ाना। 2. प्रत्यक्षादी आठ प्रमाणों से युक्त पंच परीक्षा से सुपरिक्षित सत्य को ही मानना कहना तथा आचरण करना। 3. विद्यादि के लिए ब्रह्मचर्यादि सत्यव्रतों का अनुष्ठान। 4. अपने इन्द्रियों को अधर्म आदि से हटाकर सदा धर्म में स्थिर रखना। 5. अपनी आत्मा व मन को सदा धर्म में स्थिर रखना। 6. वेद ज्ञान तथा शिल्प विद्या से धर्मादि पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि करना। 7. यज्ञों से जगत का उपकार करना। 8. अतिथि का सम्मान और उनसे अपनी ज्ञानवृद्धि करना। 9. सन्तानों का पालन, उन्हें सुशिक्षित एवं धर्मात्मा बनाना। 10. संगति करण द्वारा सुसमाज निर्माण। ये धर्म के दस लक्षण ऋत, सत्य, तप, दम, शम, अग्न्य, अग्निहोत्र, अतिथि, मानुष तथा प्रजा सन्दर्भ में अथर्ववेद 12/5/1-2 के अनुसार कर्तव्य हैं।
वर्ण
वर्ण शब्द का अर्थ रंग होता है। जीविकोपार्जन हेतु कर्म का रंग वर्ण है। वर्ण व्यवस्था के चार शाश्वत उद्देश्य हैं- 1. समाज संगठन, 2. व्यक्ति समाज सामंजस्य, 3. व्यक्ति एवं समाज के मध्य कर्तव्यों एवं अधिकारों का समुचित विभाजन, 4. श्रम विभाजन।
वर्ण व्यवस्था चार भागों में विभक्त आश्रम व्यवस्था का एक चरण है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवं संन्यासी का कोई वर्ण नहीं होता। वस्तुतः वर्ण तो गृहस्थ धर्म पालन हेतु चुना गया जीविकोपार्जन क्षेत्र है। स्पष्ट है वर्ण जन्मगत न होकर गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप चयनित कर्मक्षेत्र है।
चार वर्णों में ब्राह्मण वह है जो विद्यावान होकर वस्तुओं को यथावत जानता, वेद, ईश्वर, मुक्ति, कर्मविधान, ऋत व्यवस्था, धर्म तथा आचार का कर्म विचारमय ज्ञानी होता है। क्षत्रिय वह है जो तेजस्वी होता है, तथा धैर्यवान होकर न्यायपूर्वक ही कर्मों को करता है। शरीर व आत्मा से बलवान होकर उत्तम कर्मों को करना आदि क्षत्रियत्व है। वैश्य वह है जो कृषि, पशु रक्षण, व्यापार, ऋण तथा ऋणादि व्यवस्था करता एवं विद्या हेतु धन व्यय करता है। शूद्र वह है जो श्रम से धनार्जन करे तथा कुछ शिल्प विकसित करे।
आश्रम
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के लिए शत वर्षीय मानव जीवन को चार भागों में विभक्त कर ऋषि ऋण, पितृऋण एवं ब्रह्म ऋण से उऋण होने के लिए चारों ओर से जिसमें श्रम किया जाता है वह आश्रम है। आश्रम चार हैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास।
ब्रह्मचर्य आश्रम में सर्व सत्य विद्याओं का एकाग्र चित्त होकर अध्ययन एवं अनुपालन सीखना, जीवन की समस्त शक्तियों को ओज में संघीभूत करते उनका सुविकास करना और ज्ञानमय उदात्त जीने की कला सीखना होता है। ब्रह्मचर्य रूपी पुख्ता नींव पर गृहस्थ रूपी भवन खड़ा होता है। स्ववर्णस्थ कर्तव्य कर्मों को करते आजीविका प्राप्त करते सुसन्तान निर्माण इस में किया जाता है। वानप्रस्थ संन्यास आश्रम की तैयारी का आश्रम है। साधना, आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं निष्काम सेवा द्वारा स्वजीवन परिमार्जन तथा मोक्ष की ओर उन्मुख इसमें होना होता है। संन्यास आश्रम में ब्रह्म-निकटता से जीवन चरम लक्ष्य मोक्ष को सिद्ध करते अन्य आश्रमियों को ज्ञान सुवितरण इसके कर्तव्य हैं। संक्षेप में विद्यार्जन सतत श्रम, आजीविकार्जन सतत श्रम, स्वार्जन सतत श्रम तथा ब्रह्मार्जन सतत श्रम ही आश्रम व्यवस्था है।
आश्रम व्यवस्था के निम्न उद्देश्य हैं- 1. धर्म अर्थ काम मोक्ष की सिद्धि। धर्म- आत्मवत हर पल, अर्थ- सार-सार ग्रहण, काम- स्नेह विस्तार, मोक्ष- लक्ष्य निकटतम या लक्ष्य अनओझल। 2. जीवन के उद्देश्य की क्रमिक सफलता। 3. भोग एवं कर्म सामंजस्य। 4. उम्र भर समाजीकरण का श्रेष्ठ विधान। 5. वर्ण व्यवस्था के दुष्प्रभावों को कम करना।
वैदिक दैनिक जीवन
वैदिक दैनिक जीवन संस्कारों, आश्रमों, वर्णों की व्यवस्था के व्यक्तिगत, सामाजिक, लौकिक, पारलौकिक समन्वय से पूर्ण होती है। इसका मुख्य क्रम इस प्रकार है- 1. जागरण, 2. शौच, 3. मुखमार्जन, 4. व्यायाम, आसन, प्रणायाम; 5. स्नान, 6. संध्या, उपासना या ब्रह्मयज्ञ; 7. देवयज्ञ, 8. यज्ञमय (पितृ, बलिवैश्व एवं अतिथि यज्ञमय) स्वल्पाहार, 9. आजीवीकोपार्जन- वर्णाश्रम धर्म, 10. ब्रह्मयज्ञ- संध्या-उपासना, 11. यज्ञमय भोजन, 12. जीविकोपार्जन वर्ण धर्म, 13. ब्रह्मयज्ञ- संध्या-उपासना, 14. देवयज्ञ, 15. सामाजिक कार्य, 16. यज्ञमय भोजन, 17. स्वाध्याय एवं 18. योगनिद्रा- शयन।
वैदिक शिक्षा क्रम
- आरम्भ = अ) अष्टाध्यायी व्याकरण भाग- पाणिनी कृत ब) महाभाष्य।
- मध्यम = अ) निघण्टु, शब्द कोष ज्ञान- यास्क कृत। ब) निरुक्त।
- मध्य = अ) छन्द ग्रन्थ पिंगलाचार्य कृत, ब) ग्रन्थ रचना प्रक्रिया, स) मनुस्मृति, वाल्मिकीय रामायण, महाभारत, उद्योग पर्वान्तर्गत विदुर नीति।
- उच्च = अ) पंचदर्शन- मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य। ब) दशोपनिषद- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय। स) वेदान्त दर्शन- छान्दोग्य, बृहदारण्यक। द) छः शाó- अंगादि। ई) ब्राह्मण- ऐतरेय, शतपथ, साम, गोपथ।
- उच्चतर = वेद एवं आधुनिक विज्ञान।
- उच्चतम = इनका जीवन में अवतरण प्रयास एवं आधुनिक विज्ञान से समन्वय।
वैदिक शिक्षण का उद्देश्य इहलौकिक समृद्धि द्वारा मृत्यु को पार करने के पश्चात आध्यात्मिक समृद्धि द्वारा अमृत की प्राप्ति है। क्योंकि मात्र इहलौकिक समृद्धि अन्धे के समान है तथा मात्र आध्यात्मिक समृद्धि लंगडे के समान है। इसलिए वैदिक शिक्षा का उद्देश्य इहलौकिक तथा आध्यात्मिक का जीवन में सन्तुलित संयमन है।
वैदिक संध्या
सम्यक् ध्यान संध्या है। संध्या संयोग है। सम योग का उद्देश्य ब्रह्ममय होना है। संध्या का सरल अर्थ ब्रह्म को दुहना है। ऋग्वेद 8/1/29 के अनुसार जागृति पश्चात सूर्योदय समय, मध्य दिन में तथा निद्रा के विश्राम पूर्व संध्या करनी चाहिए। संध्या हेतु उपयुक्त स्थान को वेद में उपह्नर कहा गया है। ऐसा स्थान नदियों के किनारे किसी पर्वत गुफा का हो सकता है जहां का ताप 15 से 20 सेंटीग्रेट के करीब, गन्ध 20 से 25 एकांक, ध्वनि 15 से 20 डेसिबल तथा प्रकाश सौम्य हो।
संध्या जिसका नाम ब्रह्मयज्ञ भी है के निम्न चरण हैं- 1. आसन- राढ़, गर्दन, शीश सन्तुलित स्थिरं सुखम् आसनम्। 2. प्राणायाम- प्राणों के आयामों का सन्तुलन। 3. आचमन- जलवत स्वाभाविक पवित्रता धारण। 4. इन्द्रिय स्पर्श- स्थूल अवयव अंग हैं, आत्म शक्तियां इन्द्रियां हैं। 5. मार्जन- सम्पूर्ण परिष्कार भावना, मार्जन अर्थात् परिशुद्धि। 6. अघमर्षण- ब्रह्मगुण व्यापकता से पाप की भावना को तिरोहित करना। 7. मनसा परिक्रमण- प्रगति, दक्षता, शांति, ऊर्ध्वता, स्थिरता उन्नयन भावनाओं को दिशाओं के माध्यम से मानस में पिरोना। 8. उपस्थान- पूर्ण आयु ब्रह्ममयता। 9. मेधा पवित्रता- ब्रह्मगुण धारण भावना। 10. नमन- पूर्ण को समर्पण द्वारा पूर्णता प्राप्ति भावना। 11. शान्ति- व्यक्ति, समाज, विश्वशांति भावना।
देवयज्ञ
सर्व-परिशुद्धि हेतु स्व समर्पण, वातायन शुद्धि एवं देवस्थ तदाकारता देवयज्ञ है। इस के अग्निहोत्र हवन आदि अन्य नाम हैं। देवपूजा, संगतिकरण एवं दान इसके अन्य अर्थ हैं और उद्देश्य है त्यागन लक्ष्यन एवं संगठन। देवयज्ञ के निम्न चरण हैं। 1. आचमन, 2. अंगस्पर्श, 3. अग्न्याधान, 4. अग्नि प्रदीपन, 5. समिधादान, 6. पंच घृताहुतियां, 7. जल सेचन, 8. आघारावाज्य भागाहुतियां, 9. प्रधान आहुतिया एवं 10. पूर्णाहुति।
यज्ञ का मुख्य उद्देश्य दो शब्दों द्वारा अभिव्यक्त है- स्वाहा तथा इदन्न मम। स्वाहा के अर्थ हैं- 1. दिव्य उत्तम प्रार्थना से अभिभूत होना (निरुक्त 8/2) आत्मा में दिव्य परमात्मा को आहूत करना। (वही) 3. प्रतीक समिधादान। 4. स्व-समिधा समर्पण, विस्तरण अर्थात् आत्म समर्पण। 5. सुस्तुतिमय आहुति। तथा इदन्न मम का अर्थ सकारात्मकता है। इसके साथ यज्ञ में हर स्थल पूर्व में स्वाहा का भाव आया हुआ है। यह आहुति अग्नि आदि तेजों के लिए है मेरे लिए नहीं। हे आत्मन् यज्ञ तुझ में वृद्धि करनेवाला है (ऋग्वेद 3/32/12) यही देवयज्ञ का प्रमुख उद्देश्य है।
उपसंहार
वैदिक जीवन आज भी जिया जा सकता है। वैदिक मानव (जो हर कोई हो सकता है) स्तुति के लिए ऋग्वेद की ऋचाएं, कर्मों के लिए यजुर्वेद की ऋचाएं, विवेक के लिए अथर्ववेद की ऋचाएं तथा आत्मदीप्ति के लिए सामवेद की ऋचाएं उपयोग में लाते ब्रह्म तथा जगत का विज्ञान स्वयं में सिद्ध कर लेता है। वैदिक मानव वाणी में ऋग्वेद विज्ञान, मन में यजुर्वेद- यज्ञ महान, प्राणों में सामवेद- आह्लाद आनन्द तथा इन्द्रियों में अथर्ववेद- कम्पन रहित शान्ति धारण कर लेता है। उसमें वेद रच-पच जाते हैं तथा जीवन में आत्म चैतन्य सरोबार हो उठता है।
वैदिक मानव पांच कोषों- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय का अनुक्रम से क्रमशः पूर्ण परिष्कार कर लेता है। चारों वाणियों का साक्षात जीवन में अवतरण सिद्ध कर लेता है। वह ऋत की नाभि पर अधिष्ठित हो जाता है इसी से वह सम्यक् शुद्ध तथा पवित्र हो जाता है। (ऋग्वेद10/13/3)
इसी प्रकार अथर्ववेद (1/34/3) के अनुसार वैदिक पुरुष का निकट का रहन-सहन मधुमय होता है। उसका गमन-आगमन मधुमय होता है। उसका दूर का रहन-सहन मधुमय होता है। उसकी वाणी में मधु भरा रहता है। एक शब्द में वह मधु का स्वरूप हो जाता है। ब्रह्म मधु है, वैदिक पुरुष ब्रह्म से स्वयं को भर लेता है। इस प्रकार वैदिक जीवन प्रणाली स्वयं को ब्रह्म से भर लेने की पद्धति है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)