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घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे

मानवता-गृह

       मन्दिर, मसजिद, गिरजे, गुरुद्वारे करीब 50 लाख हैं भारत में। ये सब धर्म स्थल मुर्दा संस्कृतियों की लाशें ढो रहे हैं। ये सब अतीती महापुरुषों के मजार हैं। इने-गिने अपवाद स्थलों पर धर्म के नाम पर मनोरंजन, संस्कृति के नाम पर भोंड़े प्रदर्शन, पूजा पाठ के नाम पर ढकोसले और साधनाओं के नाम पर आवेग एंव धोखे प्रसारित किए जाते हैं। ये धर्म स्थल सस्ते लोगों के शोक स्थल हैं। जनता की अन्धी धर्म भावना का लाभ उठाकर कुछ चालू लोग अपनी सस्ती भावनाओं को उभार देते हैं, और एक नाम के धार्मिक अर्थ में अधार्मिक उत्सव का जन्म होता है।

       अकेले भिलाई नगर में करीब 30 गरोशोत्सव मनाए जाते हैं, जिनमें चार हजार से आठ हजार तक व्यय किए जाते हैं। दस दुर्गोत्सव जिनमें आठ से दस हजार तक का खर्च, दस ही बसंत पंचमी उत्सव जिनमें दो से तीन हजार रुपए तक का खर्च.. कुल मिलाकर पच्चीस के करीब मन्दिर मसजिद, गिरजे, गुरुद्वारे हैं। जिनमें प्रतिवर्ष आठ से दस हजार तक का औसतन खर्च किया जाता है। यदि यह कुल खर्च जोड़ा जाए तो —

       30 गणेशोत्सव 30 =  600   180,000                       रु.

       10 दुर्गात्सव   10 =  900    90,000                        रु.

       10 बसंत उत्सव   10 =   2500       25,000                रु.

       25 मन्दिर आदि   25 =   900      125,000                रु.

                                                        42,0000रु.   (ये 1971 के आंकड़े हैं)

       इस प्रकार मोटे तौर पर धर्म के नाम पर मनोरंजन में प्रतिवर्ष चार लाख बीस हजार रुपए खर्च होते हैं। धर्म के नाम पर यह सरासर चार सौ बीसी है। इन धार्मिक उत्सवों स्थलों का इस व्यय की तुलना में रचनात्मक योग दान यदि देखा जाए तो वह रात्रि जगराता, भोंड़े प्रदर्शन, छिछले कवि सस्मेलन, छिछले मुशायरे और कुछ अन्ध विश्वासों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

       कब तक? आखिर कब तक धर्म के नाम पर नासमझी के बोझ ढोते रहेंगे? इन मन्दिरों, मसजिदों, गिरजों, गुरुद्वारों का इन पर होनें वाले खर्चों का हमें रचनात्मक उपयोग करना ही होगा। ये आंकड़े केवल भिलाई के हैं। रायपुर, बिलासपुर, नागपुर आदि शहरों के आंकड़े इससे भी अधिक निकलेंगे। धर्म को इस कीचड़ी स्थिति से उन्मुक्त करना होगा, उबारना होगा।

       चार लाख बीस हजार रुपए में कितने रचनात्मक मानवतामय कार्य किए जा सकते हैं। इन रुपयों में यदि अस्थाई से कमरों की व्यवस्था हो तो सोलह सौ अस्सी छोटे-छोटे होम्योपैथिक दवाखाने चलाए जा सकतें हैं, या आठ सौ चालीस लोगों को चूड़ी की, खिलौनों की, सब्जी आदि की छोटी-छोटी दुकानों द्वारा आजीविका दी जा सकती है। या सात हजार लोगों को सिलाई की ट्रेनिंग दिलाई जा सकती है, या एक हजार दो सौ सिलाई ट्रेंड लोगों को मशीन दिला कर आजीविका दी जा सकती है। कई विद्यार्थियों की फीस दी जा सकती है। पर यह सब सोचने की इन धर्म-महन्तों सही अर्थों में ठगों ने कभी आवश्यकता नहीं समझी।

       आज समय आ गया है कि इन धर्म-स्थलों को इन धर्म उत्सवों को सही अर्थों में मानवता के रचनात्मक मन्दिरों के रूप में बदल दिया जाए। इन मन्दिरों, मसजिदों, गिरजों आदि का बस एक नाम होना चाहिए …मानवता-गृह। इन्हे स्कूलों, लघु उद्योग केन्द्रों, दवाखानों में बदल देना आज की आवश्यकता है। बातों की भीड़ से इनको कर्मों के अनुशासित समूहों तक लाना होगा। इन मानवता गृहों से निकला हर आदमी चाहे वह आजीविका कमाने योग्य हुआ हो या निरोग हुआ हो या शिक्षित हुआ हो इस भावना से ओत-प्रोत करना होगा कि वह मानव है बस मानव और कुछ नहीं।

       अर्जित श्रम मूल्य दो भागो में विभाजित होता है- उपयोग एवं संचित। संचित श्रम का एक नाम है धन। यदि धन को इस रूप में लिया जाए.. (इसे इसी रूप में लेना आवश्यक हैं) तो इसका दुरुपयोग एक गुनाह है। श्रम की बरबादी से बड़ा पाप शायद कोई नहीं है। ये धर्म परम्पराएं, धर्म रूढियां महापुरुषों के जन्मों, मरणों, विजयों पर संचित श्रम तो नष्ट करती ही हैं; नव श्रम को भी नष्ट करती हैं। समय का नष्टीकरण तीसरा पाप है। पुण्य के कहे समझे जाने वाले इन सामुहिक पापों को बन्द करना है। संचित श्रम, नव श्रम एवं समय को नष्ट होने से बचाना है। समूल परिवर्तन चाहता है आज का प्रचलित धर्म।

       धर्म हमेशा सरल होगा, सहज होगा, आवेग से धर्म का दूर तक का भी कोई रिस्ता नहीं है। जो भूल-भूलैया है, जो रहस्यमय है वह धर्म नहीं है। जो स्पष्ट है वह धर्म है। आज भगवान, अल्लाह, यहोबा, ओंकार के आदि के ठेकेदारों ने धर्म को क्लिष्ट, कठिन, टेढ़ा, घुमावदार बना डाला है। धर्म कर्म की गतियों को बड़ा गहन कहा जाने लगा है। कोई विरला ही धर्म को समझ सकता है। इसका व्यापक प्रचार किया जा रहा है। यथार्थता यह है कि यदि धर्म सरल सहज नहीं हैं तो वह अधर्म है। कठिन गहन मति वाला, आसानी से समझ न आ सकने वाला कभी शाश्वत नहीं हो सकता है। धर्म तो शास्वत है। हर किसी को सहज सुलभ है, पर मानव स्वयं ही गलत पर इतना भटक गया है कि सहज, सरल, सुलभ उसे कठिन लगने लगा है। इस भटकाव को खत्म करना होगा । “आह्लाद भरे शब्द लच्छेदार नही होते, लच्छेदार घुमावदार शब्द विश्वास लायक नहीं होते” 52 पर  आज यह नियति ही उतर गई है। आवेगित, घुमावदार, गोल-गोल शब्दों में धर्म को नई-नई परिभाषाओं में और-और विकृत किया जा रहा है।       अन्धा-धुन्ध प्रचारों द्वारा मानव जाति को बहकाया जा रहा है। आज जो व्यक्ति जितना अधिक लच्छेदार, घुमावदार, अटपटे, चटपटे शब्दों वाक्यों में धर्म पर भाषण दे सकता है, वह उतना ही बड़ा पण्डित, मौलवी, पादरी है या भगवान, योगी या अवतार है। लच्छेदार बातों के कीचड़ से मानव को उबारना होगा और उसे सहज, सरल, सौग्य, पावन, सभ्य धर्म की शान्तिमय छांव देनी होगी।

       आज अधिक व्यापक होते जा रहे इस युग में संस्कृतिक घेराव की परम्पराएं बढ़ती चली जा रही हैं। “भौतिक घटना तथ्य” विज्ञान “व्यापक मानव जीवन” से इसलिए बड़ा नहीं हुआ, कि वह बड़ा है वरन इसलिए बड़ा हो गया है कि मानव बहुत ही छोटा हो गया है। छोटे-छोटे घेरों का ढिंढोरा बहुत बड़ा है। इन घेरों के ढिंढोरों ने वह पद्धति अपनाई है कि मानव अपनी आधार भूत मानवता से पृथक् हो गया है। इन गलत प्रचारों के व्यापक फैलाव का परिणाम यह हुआ है कि हम उन्हीं बन्धनों की, घेरों की जंजीरों को बड़ी ममता से गले लगाते हैं जो हमें बांधती चली जाती हैं। इन बन्धनों का बन्धन ही जानना होगा। आधार भूत मानवता से जुड़ना होगा। घेरों से मुक्त होना होगा। “व्यापक मानव जीवन”, “भौतिक घटना तथ्यों” की तुलना में हमेशा का बड़प्पन कायम रखना होगा।

       आज शाश्वत प्रेम के पथ से भटक कर मानव इन नकली धर्म राजो द्वारा अन्धा बर्बर पशु बना दिया गया है। ये सब अन्धे युग के अश्वत्थामा हैं। जो “झूठे सत्यों” द्वारा हनित किए जाने पर अन्तस ही अन्तस चीखते हैं अपनी अलग-अलग वाणी में।

                     “किन्तु नहीं

                     जीवित रहूंगा मैं

                     अन्धे बर्बर पशु सा

                     वाणी हो सत्य धर्म राज की।

                     मेरी इस पसली के नीचे

                     दो पंजे उग आएं

                     मेरी ये पुतलियां

                     बिन दांतों के चीथ खाएं

                     पाएं जिसे” 53

       घेरों घिरे लोग वाणी के खूंखार पंजो से हिंसक पशुओं सा दूसरों को नोचते हैं। इस नोच-खसोट से “मानव-शासक” को बचाना होगा। “मानव-शिशु” को मानवता की सुखद छाया में पालना होगा कि वह झूठे सत्यों द्वारा अन्धा बर्बर पशु न बनाया जाए कि बड़े होने पर वह भी अपनी पसली के नीचे खूंखार पंजे न मांगने लगे।

       ये सम्प्रदाय तालाब संकीर्ण ड़बरे हो गए हैं। मानवता आकाश से बरसा प्रेम पानी इनमें रखा रखा सड़ चला है। इन डबरों में खिले कमल हिन्दू, मूसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदि-आदि मुरझाने की और बढ़ रहे हैं। इस पानी को शुद्धता देने पर विचार जब करते हैं, तो पता चलता है कि यह पानी इस बुरी तरह सड़ गया है कि इसे शुद्ध ही नहीं किया जा सकता है। अरे धर्म के ठेकेदारों! अरे गलत इन्सानियत पूजने वालों!! अरे अरे निष्ठुर मालियों!!!

          अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,

          ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं। 54

       किश्तियां बान्धने के लिए बने थे संसार नदी के तीर, ये मन्दिर, मसजिद, गिरजे, गुरुद्वारे के घाट। ताकि लोग इन घाटों से संसार नदी में सफलता पूर्वक पार कर लें। हंसते-हंसते हल्के-फुल्के पार उतर जाएं। आज इन घाटों नें अपनी किश्तियों में कई-कई छेद कर लिए हैं और पुकारते रहते हैं….

              हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,

              शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।

       डूबने की व्यवस्था देनें का हक इन अन्धी कलमों के हाथों से छीन लेना होगा। इन छिद्रित नावों को तोड़ना होगा। इन फिसलन भरे घाटों का पूरी तरह नव सृजन करना होगा ! उन्हें “मानवता -गृहों” के रूप में परिवर्तित करना होगा। हम सबको अपने आप में करोड़ करोड़ लोग बसाने होगें.. जिन्हे गूंगा कर दिया गया हैं, जिन्हें अन्धा कर दिया गया है, जिन्हे बहरा कर दिया गया है.. और करोड़ों को आवाज देने चीखना होगा….

              “मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग

                           चुप कैसे रहूं?”   समझदार लोगों की अपनी चुप्पी तोड़नी होगी .. और घेरे घिरे गूंगो को भी आवाज देनी होगी। हमें इन घेरों, इन जंजीरों, इन दीवारों को जो मानवता को बांटती हैं तोड़ना होगा। इनमें घिरे मानवों को घुटन भरे कारागाहों से उन्मुक्त करना होगा, कि ये भूले आदमी .. बाहर आकर खुली हवा में सांस ले सकें।

(~क्रमशः)

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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