घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे
न मम ही ब्रह्म शाश्वत है
मेरा गिरजा, मेरा मन्दिर, मेरी मस्जिद, मेरा गुरुद्वारा आदि; और इन सबसे निकलती आवाजें मेरी बाइबिल, मेरी गीता, मेरे वेद, मेरे पिट्टक, मेरा धम्मपद, मेरा कुरान, मेरे ग्रन्थसाहब आदि यह सब मम मृत्यु है। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि-आदि सब आदमी की अपेक्षा से मुर्दे हैं। दो अक्षरों में मृत्यु भोगते इन संकीर्ण मानसिक अपाहिज लोगों को तीन अक्षरों के धर्मपथ पर लाना ही होगा। “दो अक्षरों से मृत्यु हो जाती है, और तीन अक्षरों से ब्रह्म शाश्वत मिल जाता है। मम (मेरा) से मृत्यु, और न मम (न मेरा) से ब्रह्म शाश्वत मिलता है।” 47
द्वय अक्षरं मृत्यु भवति त्रय अक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च मृत्यु भवति न मम ब्रह्म शाश्वतम्।।
मम की कठोर बेड़ियों से बन्धा मानव धर्म के क्षेत्र में कितना कराहता है, कितना दुःखी है, कितना उदासीन है यह कोई धर्मान्ध व्यक्तियों को देखकर ही जान सकता है। “न मम” की तीक्ष्ण छेनी से ये बेड़ीयां काटनी होंगी। उन्मुक्ति हर मानव का अधिकार है; सहज, सरल अधिकार है। यह अधिकार मानव मात्र को समान रूप से देना होगा। हिन्दुत्व, मुसलमानियत, ईसाइयत आदि आदि के सकरे मानसिक बन्धन तोड़ने होंगे। इन समस्त बन्धनों का नामोनिशान मिटाकर मानवता की मानसिक उन्मुक्ति का विस्तार करना होगा। तभी मानव जीवन सौम्यता, सरलता एवं पाकता से परिपूर्ण होगा।
“अट्ठाराह पुराणों का सार है दो वचन व्यास के, पर पीड़न ही पाप है परहित ही पुण्य है।” 48
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम्।।
इन वचनों पर हमें दुहरी मान्यताएं लादने का कोई हक नहीं है। इस परिभाषा का विकृतीकरण करना सबसे बड़ा पाप है। “पर” सर्व के लिए प्रयुक्त हुआ है। मुसलमान का काफिर को पीड़न भी उतना ही बड़ा पाप है जितना मुसलमान को पीड़न, इसी तरह मुसलमान द्वारा काफिर का हित भी उतना ही बड़ा हित है जितना कि मुसलमान का हित। यही हिन्दू आदि के लिए भी है। ‘पर’ के इस सर्व को संकीर्ण करना अधमता है हर किसी के लिए। “परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।”49 जिनके मन में सही अर्थों में परहित है उनके लिए हर कुछ सुलभ है।
मानव मानव यदि समरूप से “मानवहित” की भावना से अपने-अपने क्षेत्र में परिपूर्ण हो जाए, एवं कर्मों में भी इसी भावना को उतार ले तो साम्यवाद से लेकर धर्म तक सभी कुछ सुलझ जाए। सबके जीवन में “एक सब के लिए सब एक के लिए” का महामन्त्र सार्थक हो जाए। “मानव हित” के महा-धर्मवाक्य में सब वाद, सब बाड़ियां, सब सम्प्रदाय, सब घेरे, सब झण्ड़े, सब मन्दिर मस्जिद सिमट जाएंगे। और यह मानव जाति की सबसे बड़ी सार्थकता होगी। आओ इस सार्थकता की ओर पहला कदम बढ़ाएं! घेरों को घेर दें! हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि से आदमी बनें। लघुता से महत्ता की ओर अग्रसर हों।
“मां अपने इकलौते लड़के के प्रति रखती है असीम प्रेम, उसे देती है असीम रक्षा। उसी तरह मनुष्य समस्त प्राणियों के प्रति असीम प्रेमभाव रखे।” 50 समाज स्वस्थ हुए बिना व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। समाज स्वस्थ तभी हो सकता है जब इसमें प्रेम की धारा बहे। समाज की कड़ियां है आदमी। कहीं एक भी आदमी उपेक्षित होगा, नकारा जाएगा, दूसरा आदमी समझा जाएगा तो समाज को पीड़ा होगी। मां अपने इकलौते बेटे पर लुट जाती है जैसे; मानव-मानव पर लुट जाए तो समाज की हर पीड़ा मिट जाएगी। पीड़ा रहित समाज में मानव-मानव आनन्द से सरोबार रहेंगे।
“सब लोग दण्ड से डरते हैं। मृत्यु से सभी भय खाते हैं। जीवन सबको प्यारा लगता है। दूसरों को अपनी तरह जानकर ऐसी उपमा करते हुए मनुष्य न तो किसी को मारे और न किसी को मारने की प्रेरणा ही करे।” 51 मानव-मानव 95 प्रतिशत समान ही होते हैं मृत रूप में। इतनी बड़ी समानता को थोड़ी सी असमानता पर नकार देना बुद्धि का घोर अपमान है। हम अपनी बुद्धि को अपमानित न होने दें। बुद्धि में आवरण या घेरे न धंसने दें। एक बार ये आवरण, ये घेरे दिमाग में धंस जाने पर मानव-मानव में समानता पहचानने वाली आंखे हम खो देंगे और अन्धों की दुनियां में शामिल हो जाएंगे। अन्धों की मान्यताएं मान लेंगे। हममें उनमें कोई फर्क न रह जाएगा।
(~क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)